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________________ ६८२ नव पदार्थ इन वार्तालापों से स्पष्ट है कि तप निर्जरा का हेतु है; संवर का नहीं । संवर का हेतु संयम है'। 'तवसा निज्जरिज्जइ२-तप से निर्जरा होती है, ऐसा उल्लेख अनेक स्थलों पर प्राप्त है। आगम में कहा है-"जैसे शकुनिका पक्षिणी अपने शरीर में लगी हुई रज को पँख झाड़-झाड़ कर दूर कर देती है, उसी तरह से जितेन्द्रिय अहिंसक तपस्वी अनशन आदि तप द्वारा अपने आत्म-प्रदेशों से कर्मों को झाड़ देता है।" इससे भी तप का लक्षण निर्जरा ही सिद्ध होता है, संवर नहीं। अन्यत्र आगम में कहा है-"तपरूपी वाण कर्मरूपी कवच को भेदन करनेवाला है।" __ "तप-समाधि में सदा लीन मनुष्य तप से पुराने कर्मों को धुन डालता है।" इन सब से स्पष्ट है कि तप को संवर का हेतु मानना और प्रधान हेतु मानना आगमिक परम्परा नहीं है। "तप से संवर होता है और निर्जरा भी स्वामीजी ने इस सूत्र के स्थान पर निम्न विवेचन दिया है-"तप से निर्जरा होती है। तप करते समय साधु के जहाँ-जहाँ निरवद्य योग का निरोध होता है वहाँ संवर भी होता है। श्रावक तप करता है तब जहाँ सावद्य योग का निरोध होता है वहाँ विरति संवर होता है। तप निर्जरा का ही हेतु है। तप करते - १. भगवती २.५ : संजमे णं भंते ! किं फले ? तवे णं भंते ! किं फले ? संजमे णं अज्जो ! अणण्हयफले __ तवे वोदाणफले। २. उत्त० ३०.६ ३. सुयडांग १,२.१.१५ : ___ सउणी जह पंसुगुण्डिया, विहुणिय धंसयइ सियं रयं । एवं दविओवहाणवं, कम्मं खवइ तवस्सि माहणे ।। ४. उत्त० ६.२२ : . तवनारायजुत्तेण भित्तूण कम्मकंचुयं । मुणी विगयसंगामो भवाओ परिमुच्चए।। ५. दश० ६.४ : विविहगुणतवोरए निच्चं भवइ निरासए निज्जरट्ठिए। तवसा धुणइ पुराणपावर्ग, जुत्तो सया तवसमाहिए।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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