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________________ निर्जरा पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी १७ ६८१ उपर्युक्त विवेचन से निम्न निष्कर्ष लिखते हैं : (१) संवर के कथित साधन-गुप्ति, समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप में केवल तप ही संवर और निर्जरा दोनों का हेतु है, अन्य नहीं। (२) तप से निर्जरा भी होती है पर वह प्रधान हेतु संवर का ही है। (३) संवर से गुप्ति, समिति आदि कथित हेतुओं में तप सर्व प्रधान है। (४) समिति, अनुप्रेक्षा और परीषहजय जो शुभ योग रूप हैं उनसे भी संवर होता (५) गुप्ति और चारित्र की तरह समिति, अनुप्रेक्षा आदि योग भी संवर के हेतु हैं। इन निष्कर्षों पर नीचे क्रमशः विचार किया जाता है : प्रथम निष्कर्ष : श्री उमास्वाति ने परीषहजय को अन्यत्र निर्जरा का हेतु माना है । अतः अलग सूत्र के औचित्य को सिद्ध करने के लिये टीकाकारों द्वारा जो प्रथम समाधान 'उभयसाधनत्वख्यापनार्थम्" दिया गया है, वह एकान्ततः ठीक प्रतीत नहीं होता। कारण संवर के अन्य कथित हेतुओं में भी निर्जरा सिद्ध होती है। द्वितीय निष्कर्ष : एक बार भगवान महावीर से पूछा गया-"भगवन् ! तप से जीव क्या उत्पन्न करता है ?" भगवान ने उत्तर दिया-"तप से जीव पूर्व के बंधे हुए कर्मों का क्षय करता है।" इसी तरह दूसरी बार प्रश्न किया गया-"भगवन् ! तप का क्या फल है ?" भगवान ने उत्तर दिया-"हे गौतम ! तप का फल वोदाण-पूर्व-संचित कर्मों का क्षय है।" १. (क) तत्त्वा० ६.३ राजवार्तिक १ : तपो निर्जराकारणमपि भवतीति (ख) वही : राजवार्तिक २ : तपसा हि अभिनवकर्मसंबन्धाभावः पूर्वोचितकर्मक्षयश्च, अविपाकनिर्जराप्रतिज्ञानात् २. (क) तत्त्वा० ६.७ भाष्य ६ : __निर्जरा .... कुशलमूलश्च .... तपः परीषहजयकृतः कुशलमूल : (ख) वही ६.८ : मार्गाच्यवननिर्जरार्थपरिषोढव्याः परीषहाः। ३. उत्त० २६.२७ : तवेणं भन्ते जीवे कि जणयइ।। तवेणं वादाणं जणयइ।। ४. (क) भगवती २.५ : तवे वोदाणफले (ख) ठाणाङ्ग ३.३.१६० : तवे चेव वोदाणे
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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