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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १७
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उपर्युक्त अवतरणों से स्पष्ट है कि सकाम तप का पात्र कौन है, इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत हैं। कई विद्वानों ने साधु को ही इसका पात्र माना है और कइयों ने श्रावक और सम्यकदृष्टि को भी। पर मिथ्यात्वी का उल्लेख किसी ने भी नहीं किया। इससे सामान्य मत यह लगता है कि सकाम तप मिथ्यादृष्टि के नहीं होता।
स्वामीजी ने साधु, श्रावक और सम्यकदृष्टि की तरह मिथ्यात्वी के भी सकाम तप माना है, इसका उल्लेख पहले किया जा चुका है। वे लिखते हैं :
निरवद करणी करे समदिष्टी, तेहीज करणी करें मिथ्याती तांम। यां दोयां रा फल आछा लांगें, ते सूतर में जोवों ठाम ठांम' ।। पेंहलें गुणठांणे करणी करें, तिणरे हुवें छे निरजरा धर्म।
जो घणों घणों निरवद प्राकम करें, तो घणा घणा कटे छे कर्म । उपयुक्त उद्गारों से स्पष्ट है कि स्वामीजी ने मिथ्यात्वी के लिए भी निरवद्य करनी का फल वैसा ही अच्छा बतलाया है जैसा कि सम्यक्त्वी को होता है। मिथ्यात्वी गुण स्थान में स्थित व्यक्ति के भी निरवद्य करनी से निर्जरा धर्म होता है। उसका निरवद्य पराक्रम जैसे-जैसे बढ़ता है वैसे-वैसे उसे अधिक निर्जरा होती है। मिथ्यात्वी के भी शुभ योग होता है-"मिथ्याती रे पिण सुभ जोग जाण हो।" वह भी निरवद्य करनी से कर्मों को चकचूर करता है-"ते पिण कर्म करें चकचूर रे।"
आगम में शीलसम्पन्न, पर श्रुत और सम्यक्त्व रहित को भी मोक्ष-मार्ग का देश आराधक कहा है। स्वामीजी कहते हैं-मिथ्यात्वी को देश आराधक कैसे कहा ? उसके जरा भी विरति नहीं फिर भी उसे देश आराधक कहने का क्या कारण है ? मिथ्यात्वी भी यदि शीलसम्पन्न होता है तो उसके निर्जरा धर्म होता है इसी अपेक्षा से उसे देश आराधक कहा है :
सीलें आचार करें सहीत छ रे, पिण सूतर नें समकत तिणरें नांहि रे। तिणनें आराधक कह्यों देस थी रे, विचार कर जोवो हीया मांहि रे।।
१. भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (ख० १) : मिथ्याती री करणी री चौपई ढा० १ गा० ३६ २. वही : ढा० २ दो० ३