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नव पदार्थ
निकाचित कर्मोदय की अपेक्षा जीव कर्म के अधीन ही होता है। दलिक की अपेक्षा दोनों बातें हैं। जहाँ जीव उन्हें अन्यथा करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करता वहाँ वह उस कर्म के अधीन होता है और जहाँ जीव तप की सहायता से सत्प्रयत्नशील होता है वहाँ वह कर्म उसके अधीन होता है। उदय काल से पूर्व कर्मों को उदय में ला तोड़ डालना, उनकी स्थिति और रस को मन्द कर देना-यह सब इसी स्थिति में हो सकता है। यही उदीरणा है।
२. आत्म-शुद्धि के लिए इच्छापूर्वक तप किसके हो सकता है ?
उमास्वाति लिखते हैं-"संवृततपउपधानात्तु निर्जरा"-संवरयुक्त जीव का तप उपधान निर्जरा है। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-"सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धिवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, मोहोपशमक, उपशांतमोह, मोहक्षपक, क्षीणमोह और जिन-इनके क्रमशः असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी निर्जरा हुआ करती है।"
साधु रत्नसूरि लिखते हैं-"सकाम निर्जरा साधु के होती है। वह बारह प्रकार के तप से होनेवाली कर्मक्षयरूप निर्जरा है।"
स्वामी कार्तिकेय लिखते हैं : "निदानरहित, अहंकार-शून्य ज्ञानी के बारह प्रकार के तप से तथा वैराग्य भावना से निर्जरा होती है।"
१. जैन धर्म और दर्शन पृ० २६२-६६, ३०४-३०७; ३१०-११ २. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : उमास्वातीय नवतत्त्वप्रकरण गा० ३३ ३. तत्त्वा० ६.४७ ४. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह ग्रह : वृत्यादिसमेत नवतत्त्वप्रकरण गा० १६ । ४१ की साधु रत्नसूरिकृत अवचूर्णि :
तत्र सकामा साधूनां। ..........तत्र सकामा द्वादश प्रकारतपोविहितकर्मक्षयरूपा ५. द्वादशानुप्रेक्षा : अनुप्रेक्षा गा० १०२ :
वारसविहेण तवसा, णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि। वेरग्गभावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स ।।