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नव पदार्थ
देश थकी तो आराधक कह्यों रे, पेंहलें गुणठांणे ते किण न्याय रे ।
विरत नहीं छे तिणरें सर्वथा रे, निरजरा लेखें कह्यों जिणराय रे'।। भगवती में असोच्चा केवली का उल्लेख है। वह धर्म सुने बिना निरवद्य करनी करते-करते केवली बन जाता है। यदि उसके मिथ्यात्व दशा में निर्जरा नहीं होती तो वह केवली कैसे बनाता ? स्वामीजी लिखते हैं :
असोचा केवली हूआ इण रीत सूं रे, मिथ्याती थकां तिण करणी कीध रे । कर्म पतला पऱ्या मिथ्याती थकां रे, तिण सूं अनुक्रमें सिवपुर लीध रे ।। जो मिथ्यात्वी थकों तपसा करतों नहीं रे, मिथ्याती थकों नहीं लेतो आताप रे, क्रोधादिक नहीं पाडतो पातला रे, तो किण विध कटता इणरा पाप रे ।। जो लेस्या परिणाम भला हुंता नहीं रे, तो किण विध पांमत विभंग अनांण रे । इत्यादिक कीयां सूं हुवों समकती रे, अनुक्रमें पोहतो , निरवांण रे ।। पेंहलें गुणगंणे मिथ्याती थकां रे, निरवद करणी कीधी छे तांम रे।
तिण करणी थी नीवं लागी छे मुगत री रे, ते करणी चोखी ने सुध परिणाम रे ।। मिथ्यात्वी भी वैरागी हो सकता है। उसकी निरवद्य करनी वैराग्य भावनाओं से उत्पन्न हो सकती है। स्वामीजी लिखते हैं :
___ "मिथ्यात्वी वैराग्यपूर्वक शील का पालन कर सकता है, वैराग्यपूर्वक तपस्या कर सकता है, वैराग्यपूर्वक वनस्पति का त्याग कर सकता है-इस तरह वह वैराग्यपूर्वक अनेक निरवद्य कार्य कर सकता है।"
शील पालें मिथ्याती वेंराग सूं रे, तपसा करें वेंराग सूं ताय रे । हरियादिक त्यागें वेंराग सूरे लाल, तिणरें कहें दुरगत रो उपाय रे ।। इत्यादिक निरवद करणी करें रे, वेंराग मन मांहें आंण रे।
तिणरी करणी दुरगत री कारण कहें रे लाल, ते जिण मारग रां अजाण रे ।। मिथ्यात्वी के जैसे वैराग्य संभव है, वैसे ही उसके लेश्या और परिणाम भी प्रशस्त हो सकते हैं अतः सकाम निर्जरा भी संभव है।
१. भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (रु १) : मिथ्याती री करणी री चौपई : ढा० २ गा० २४-२५ २. वही : ढा० २ गा० ४७-५० ३. वही : ढा० ३ गा० २६-३०