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________________ जीव पदार्थ : टिप्पणी १३ १३. आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष भाव जीव हैं (गाथा ४८-५६) नव पदार्थों में जीव और अजीव के उपरांत अवशेष पदार्थ जीव हैं अथवा अजीव-यह एक प्रश्न है। स्वामी जी ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया है : अजीव अजीव है क्योंकि वह तीनों कालों में अजीव ही रहता है। पुण्य अजीव है कारण पुण्य कर्म पुद्गल की पर्याय है। पुद्गल अजीव है अतः पुण्य अजीव है। इसी कारण पाप भी अजीव है। बंध पदार्थ भी अजीव है क्योंकि अशुभ कर्मों के बंध स्वरूप है। बाकी आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष जीव के भाव हैं अतः जीव है'। यहाँ इसी प्रसंग का विस्तार के साथ विवेचन है। जीव कर्मों का कर्ता है इस कारण वह आश्रव है। जीव कर्मों को रोकना वाला है इसलिये वह संवर है। जीव कर्मों को तोड़ने वाला है इस कारण निर्जरा है। जीव कर्मों का सम्पूर्ण क्षय कर मुक्त होने वाला है अतः मोक्ष है। ___ आ-जव से .कर्म आते हैं। कर्म अजीव है। कर्म ग्रहण करने वाला आश्रव जीव है। संवर से कर्म रुकते हैं। रुकने वाले कर्म अजीव हैं। रोकने वाला संवर जीव है। निर्जरा से कर्मों का आशिक क्षय होता है । क्षय होने वाले कर्म अजीव हैं। कर्मों का आंशिक क्षय करने वाली निर्जरा जीव है। मोक्ष सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हैं। जो क्षय होते हैं वे अजीव कर्म है। क्षय करने वाला मोक्ष जीव है। आश्रव कामभोगों के साथ संयोग स्वरूप है। संवर त्याग रूप है। आश्रव से अजीव कर्म आते हैं। संवर से अजीव कर्म रुकत हैं। निर्जरा से कर्मों का क्षय होता है। संवर, निर्जरा, और निर्जरा की करनी आदणीय है। जो जीव आश्रव से संयुक्त होता है वह पाप कर्म का बंध करता है। इससे वह अपने भव-भ्रमण की वृद्धि करता है इसलिये वह स्रोतगामी है-संसारी के सम्मुख है। जो त्याग और तपस्या रूप संवर और निर्जरा को अपनाता है वह कर्मों को रोकता और तोड़ता हुआ संसार को पार करता है। वह प्रतिस्रोतगामी है। आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष भाव जीव हैं। १४. सावद्य निरवद्य सर्व कार्य भाव जीव हैं (गाथा ५७-५८) : जितने भी कार्य हैं उनको दो भागों में बाँटा जा सकता है-(१) सावद्य और (२) निरवद्य। सावद्य कृत्य हेय हैं, निरवद्य कृत्य उपादेय हैं। सावध कृत्य आज्ञा के बाहर हैं, निरवद्य कृत्य आज्ञा के अंदर है। जो निरवद्य क्रिया करता है वह विनयी है, जो सावध १. पाना की चर्चा : लड़ी ५; तेराद्वार : द्वार ४, ५
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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