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________________ ६५८ नव पदार्थ .. (५) व्युत्सर्गार्ह : व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग-कायचेष्टा के निरोध करने से जिस दोष की शुद्धि हो' उसके लिए वैसा करना व्युत्सर्गाई प्रायश्चित्त कहलाता है। (६) तपार्ह : तप करने से जिस दोष की शुद्धि को उसके लिए तप करना तपार्ह प्रायश्चित्त कहलाता है। (७) छेदार्ह : चारित्र पर्याय के छेद से जिस दोष की शुद्धि होती हो, उसके लिए चारित्र पर्याय का छेद करना छेदाह प्रायश्चित्त कहलाता है। (E) मूलार्ह : जिस दोष की शुद्धि सर्व व्रतपर्याय का छेद कर पुनः मूल-महाव्रतों के आरोपन से होती हो उसके लिए वैसा करना मूलाई प्रायश्चित्त कहलाता है। ___(6) अनवस्थाप्याह : जिस दोष की शुद्धि अनावस्था से-अमुक विशिष्ट तप न करने तक महाव्रत और वेष में न रहने से होती हो उसके लिए वैसा करना अवस्थाप्याई प्रायश्चित्त कहलाता है। (१०) पारांचितकार्ह : जिस महादोष की शुद्धि पारांचितक-वेश और क्षेत्र त्याग कर महातप करने से होती हो उसके लिए वैसा करना पारांचितकाह प्रायश्चित्त कहलाता है। १. उदाहरणस्वरूप नाव से नदी पार करने पर यह प्रायश्चित्त किया जाता है। २. साधर्मिक की चोरी करना, परधर्मी की चोरी करना, किसी को हाथ से मारना-ऐसे दोष ३. दुष्ट, प्रमत्त और अन्योन्य मैथुनसेवी ऐसे दोष के भागी होते हैं। ४. छेदार्ह, मूलाई, अनवस्थाप्यार्ह और परांचितकार्ह प्रायश्चित्तों में परस्पर निम्नलिखित भेद हैं : छेदाह में चारित्र-पर्याय-चारित्रिक आयु एक हद तक घटा दी जाती है। दोषानुसार पूर्व चारित्र-पर्याय-चारित्रिक आयु को दिवस, पक्ष, मास या वष से छेद-घटा कर साधु को छोटा कर देना छेदाह प्रायश्चित है। मूलार्ह में सम्पूर्ण चारित्र-पर्याय-चारित्रिक आयु का छेद कर दिया जाता है और साधु-जीवन न पुनः शुरू करना पड़ता है। अनवस्थाप्याह में साधु अमुक काल के लिए व्रतों से अनवस्थापित कर दिया जाता-हटा दिया जाता है और फिर अमुक तप कर चुकने के बाद उसे पुनः व्रतों में स्थापित किया जाता है। पारांचिक में विशेषता यह है कि साधु को लिंग, क्षेत्र आदि से भी बर्हिभूत कर दिया जाता है (ठाणाङ्ग १०.१.७३३ की टीका)।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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