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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ११
(६) अनवस्थाप्यार्ह और (१०) पारांचिकाह' । प्रत्येक की व्याख्या नीचे दी जाती है :
(१) आलोचनार्ह : आलोचना करने से जिस दोष की शुद्धि होती हो, वह आलोचनार्ह दोष कहलाता है। ऐसे दोष की आलोचना करना आलोचनार्ह प्रायश्चित्त कहलाता है ।
(२) प्रतिक्रमणार्ह : प्रतिक्रमण से जिस दोष की शुद्धि होती हो उसके लिए प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त है ।
(३) तदुभयार्ह : आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से जिस दोष की शुद्धि होती हो उसकी आलोचना और प्रतिक्रमण करना तदुभयार्ह प्रायश्चित्त कहलाता है।
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(४) विवेकार्ह : किसी वस्तु के विवेक - त्याग - परिष्ठापन से दोष की शुद्धि हो तो उसका विवेक - त्याग करना - उसे परठना विवेकार्ह प्रायश्चित्त कहलाता है।
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३.
५.
(क) औपपातिक सम० ३०
(ख) आलोयणपड़िक्कमणे मीसविवेगे तहा विउस्सग्गे ।
तवछे अमूलअणवट्टया य पारंचिए चेव ।।
(दश० १.१ की हारिभद्रीय टीका में उद्धृत)
अपने दोष को गुरु के सम्मुख प्रकाशित करना - गुरु से कहना आलोचना कहलाती है । भिक्षाचर्या आदि में कोई अतिचार हो जाता है, वह ओलोचनार्ह दोष है। कहा है - भिक्षाचर्या आदि में कोई दोष न होने पर भी आलोचना न करने पर अविनय होता है। दोष हो जाने पर तो आलोचना आवश्यक है ही ।
४. ठाणाङ्ग १०.१.७३३ की टीका :
आलोचुना गुरुनिवेदनं तयैव यत् शुद्धयति अतिचारजातं तत्तदर्हत्वादालोचनार्ह तत्त शुद्ध्यर्थं यत्प्रायश्चित्तं तदपि आलोचनार्ह तत् च आलोचना एव इत्येव सर्वत्र
'मिथ्यादुष्कृत ग्रहण' को प्रतिक्रमण कहते हैं। 'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' - ऐसी भावना प्रतिक्रमण कहलाती है।
६. समिति या गुप्ति की कमी से जो दोष हो जाता है, वह प्रतिक्रमणार्ह दोष कहलाता है ।
७.
मन से राग-द्वेष का होना तदुभयार्ह दोष है। उपयोगयुक्त साधु द्वारा एकेन्द्रियादि जीवों को संघट्ट से जो परिताप आदि हो जाता है, वह तदुभयार्ह दोष कहलाता है