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________________ ६५६ नव पदार्थ (ग) अनशन आदि तप अन्यतीर्थी और गृहस्थों द्वारा भी किए जाते हैं अतः ये बाह्य प्रायश्चितादि आभ्यन्तर तप निम्न कारणों से आभ्यन्तर कहलाते हैं : (१) ये अन्य तीर्थयों से अनभ्यस्त और अप्राप्तपार होते हैं अतः आभ्यन्तर हैं। (२) ये अन्तःकरण के व्यापार से होते हैं अतः आभ्यन्तर हैं। (३) इन्हें बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं होती अतः ये आभ्यन्तर हैं। निश्चय से बाह्य और आभ्यन्तर तप दोनों अन्तरङ्ग हैं क्योंकि जब दोनों ही वैराग्यवृत्ति और कर्मों को क्षय करने की दृष्टि से किये जाते हैं, तभी शुद्ध होते हैं। ११. प्रायश्चित्त (गा० २२) : जिससे पाप का छेद हो अथवा जो प्रायः चित्त की विशोधि करता हो, उसे प्रायश्चित कहते हैं। कहा है : पापं छिनति यस्मात् प्रायश्चितमिति भण्यते तस्मात् । प्रायेण वापि चित्तं विशोधयति तेन प्रायश्चितम् ।। दोष-शुद्धि के लिए योग्य प्रायश्चित्त ग्रहण कर उसे सम्यक् रूप से वहन करना प्रायश्चित्त तप कहलाता है। आलोयणारिहाईयं पायच्छित्तं तु दसविहं । जं भिक्खू वहइ सम्मं पायच्छित्तं तमाहियं । प्रायश्चित्त तप दस प्रकार का कहा गया है-(१) आलोचनार्ह, (२) प्रतिक्रमणार्ह, (३) तदुभयाई, (४) विवेकाह, (५) व्युत्सर्गार्ह, (६) तपार्ह, (८) छेदाह, (८) मूलाह, १. तत्त्वा० ६.१६ राजवार्तिक : बाह्यद्रव्यापेक्षत्वाद् बाह्यत्वम्। १७ । परप्रत्यक्षत्वात् । १८ । तीर्थ्यगृहस्थकार्यत्वाच्च। १६ । अनशनादि हि तीर्थ्यगृहस्थैश्च क्रियते ततोऽप्यस्य बाह्यत्वम्। वही ६.२० राजवार्तिक : अन्यतीर्थ्यांनभ्यस्तत्वादुत्तरत्वम्। १ । अन्तःकरणव्यापारात्। २ । बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वाच्च। ३ । ३. दसवैकालिक सूत्र १.१ की हारिभद्रीय टीका में उद्धृत ४. उत्त० ३० : ३१
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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