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जीव पदार्थ : टिप्पणी १०
(७) जीव द्रव्य कभी विलय को प्राप्त नहीं होता। यह एक सिद्धांत है कि अस्तित्व में परिणमन करता है और नास्तित्व नास्तित्व में' । द्रव्यतः अस्तित्ववान जीव भविष्य में नास्तित्व में परिणमन नहीं कर सकता। गीता में कहा है- " जो असत् है उसका भाव ( - अस्तित्व) नहीं होता, जो सत् है उसका भाव (अनस्तित्व) नहीं होता-तत्त्वदर्शियों ने इन बातों को अंतिम सिरे तक जान लिया है ।"
(८) जीव द्रव्य में संख्या अनन्त है। एक बार गौतम ने पूछा - "जीव द्रव्य संख्यात है, असंख्यात हैं या अनन्त ?" भगवान ने उत्तर दिया- " हे गौतम! जीव अनंत है।" इसी प्रकार भगवान् से एक बार पूछा गया - "लोक में अंनत क्या है ?" भगवान ने उत्तर दिया- "जीव और अजीव ।" जीवों की संख्या में कभी-बेशी नहीं होती। एक बार गौतम ने पूछा - "हे भगवन् । क्या जीव घटते बढ़ते हैं ?" भगवान ने उत्तर दिया- "गौतम ! जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं, अवस्थित हैं।" गौतम ने फिर पूछा - "कितने काल तक जीव घटे बढ़े बिना अवस्थित रहते हैं।" भगवान ने जवाब दिया- " हे गौतम! जीव सर्वकाल के लिये अवस्थित हैं ।"
(६) जीव अनंत होने पर भी द्रव्य एक है। ठाणांग में कहा है- "आत्मा एक है" । " चूंकि द्रव्य रूप से सब आत्माएँ चेतन और असंख्यात प्रदेशी हैं अतः वे एक कही जा सकती हैं। (देखिये टि० ६ पृ० २८ पेरा ५)
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नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टो न्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।
३. (क) ठा० ५.३.५३० : दव्वओ णं जीवात्थिकाए अणंताइं दव्वाइं
(ख) भग० २.१०.११७ : दव्वयो णं जीवत्थिकाए अणंताइं जीवदव्वाइं ।
भग० २५.२.७१६ : जीवदव्वा णं भंते! कि संखेज्जा असंखेज्जा अनंता ? गोयमा ! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अनंता ।
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ठा० २.४.१५१ : के अनंता लोए ? जीवच्चेव अजीवच्चेव ।
६. भग० ५.८.२२१ : भन्तेत्ति भगवं गोयमे जाव एवं वयासी - जीवाणं भंते! किं वड्ढति हायंति अवट्ठिया ?, गोयमा ! जीवा णो वड्ढंति नो हायंति अवट्ठिया । जीवा णं भंते ! केवइयं कालं अवट्ठिया (वि) ? सव्वद्धं ।
ठा० १.१ : एगे आया
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भग० १.३.३२ : से पूर्ण भंते ! अत्थित्तं अत्थिते परिणमइ, नत्थित्ते नत्थित्ते परिणमइ ? हंता गोयमा ! जाव परिणमइ ।
गीता २.१६