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________________ ६४४ नव पदार्थ (३१) पुरिमाकर्ध चर्या : पूर्वाह्न में भिक्षाटन करने का अभिग्रह । (३२) भिन्नपिण्डपात चर्या : टुकड़े किए हुए पिण्ड को ग्रहण करने का अभिग्रह। उत्तराध्ययन में कहा है : "आठ प्रकार के गोचाराग्र, आठ प्रकार की एषणा तथा अन्य जो अभिग्रह हैं उन्हें भिक्षाचार्य कहते हैं। __गाय की तरह भिक्षाटन करना-जिस तरह गाय छोटे-बड़े सब घास को चरती हुई आगे बढ़ती है, उसी तरह धनी-गरीब सब घरों में समान भाव से भिक्षाटन करना-गोचरी कहलाती है। ___ अग्र अर्थात् प्रधान-आठ प्रकार की प्रधान गोचरी का उल्लेख इस प्रकार मिलता है-(१) पेटा, (२) अर्द्धपेटा, (३) गोमूत्रिका, (४) पतंगवीथिका, (५) आभ्यन्तर शम्बूकावर्त्त, (६) बहिर्शम्बूकावर्त, (७) आयतर्गतुं और (८) प्रत्यागत । कहीं-कहीं अंतिम दो को एक मान कर वें स्थान में ऋजुगति का उल्लेख मिलता है । प्रायः गोचरागों का अर्थ पहले दिया जा चुका है। शम्बूकावर्त्त के लक्षण का वर्णन पहले किया जा चुका है। शंख के नाभिक्षेत्र से आरंभ हो आवृत्त बाहर आता है, उसी प्रकार भीतर के घरों में गोचरी करते हुए बाहर वस्ति में आना आभ्यन्तर शम्बूकावत गोचरी है। शंख में बाहर से भीतर की ओर आवृत्त जाता है, उस प्रकार बाहर वस्ति में भिक्षाटन करते हुए आभ्यन्त वस्ति में प्रवेश करना बहिर्शम्बूकावर्त्त गोचरी कहलाती है। इन शब्दों के अर्थ में सम्प्रदाय भेद रहा है, यह निम्न उद्धरणों हरणों से प्रकट होगा : “यस्यां क्षेत्रबहिर्भागात् शंखवृत्तत्वगत्याऽटन् क्षेत्रमध्यभागमायाति साऽभ्यन्तरसंबुक्का, यस्यां तु मध्यभागाद् बहिर्याति सा बहिः सम्बुक्केति' (ठाणाङ्ग ५.३.५१४ टीका) “तत्य अभिंतरसंबुकाए संखनाभिखेत्तोवमाए आगिईए अंतो आढवइ बाहिरओ सन्नियट्टइ, इयरीए विवज्जओ। (उत्त० ३०.१६ की टीका) "अभिंतरसंबुक्का मज्झाभमिरो बहिं विणिस्सरइ । तविवरीया भण्णइ बहि संबुक्का य भिक्ख त्ति। सात प्रकार की एषणाओं का वर्णन पहले किया जा चुका है। (देखिए पृ० ६४३) १. उत्त० ३०.२५ : अट्ठविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया ।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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