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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ६
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(२६) अन्नग्लायकचरकत्व चर्या : अन्न बिना विषादप्राप्त साधु के लिए भिक्षाटन करना। इस के दो नाम और मिलते हैं-अन्नग्लानकचरकत्व तथा अन्यग्लायकचरकत्व । अन्यग्लायकचरकत्व का अर्थ है-अन्य वेदनादि वाले साधु के लिए भिक्षाटन करना । यहाँ 'अन्नवेल' पाठान्तर मिलता है, जिसका अर्थ है-भोजन की बेला के समय भिक्षाटन करना।
(२७) औपनिहित चर्या : जो वस्तु किसी तरह समीप में प्राप्त हो उसके लिए भिक्षाटन करना । इसका अपर नाम 'औपनिधिकत्व चर्या' भी है, जिसका अर्थ होता है-ज़ो वस्तु किसी प्रकार से समीप लाई गई हो उसके लिए भिक्षाटन करना।
(२८) परिमितपिण्डपात चर्या : द्रव्यादि की संख्या से परिमित पिण्डपात के लिए भिक्षाटन करना।
(२६) शुद्धषणा चर्या : सात या वैसी ही अन्य एषणाओं द्वारा शंकितादि दोषों का वर्जन करते हुए भिक्षाटन करना।
एषणाएँ सात हैं-संसृष्ट, असंसृष्ट, उद्धृता, अल्पलेपा, उद्गृहीता, प्रगृहीता और उज्झितधर्मा।
संसृष्ट हाथ या पात्र से देने पर लेना 'संसृष्टा', असंसृष्ट हाथ या पात्र से देने पर लेना 'असंसृष्टा', रांधने के बर्तन से निकाला हुवा लेना 'उद्धृता', अल्प लेपवाली वस्तु या लेपरहित वस्तु से लेना 'अल्पलेपा', परोसने के लिए लाई जाती हुई वस्तु में से लेना 'उद्गृहीता', परोसने के लिए हाथ में ग्रहण की गई या परोसते समय भोजन करनेवाले ने अपने हाथ से ले ली हो, उसमें से लेना-'प्रगृहीता' और जो परित्यक्त वस्तु हो-ऐसी वस्तु जो दूसरा न लेता हो, उसको लेना, 'उज्झितधर्मा' एषणा कहलाती है।
(३०) संख्यादत्ति चर्या : इतनी दत्ति को ग्रहण करूँगा इस प्रकार का अभिग्रह कर भिक्षाटन करना। धार टूटे बिना एक बार में जितना गिरे उसे एक दत्ति कहते हैं। यदि वस्तु प्रवाही न हो तो एक बार में जितना दिया जाय वह एक दत्ति कहलाती है।
औपपातिक (सम० ३०) और भगवती (२५.७) में भिक्षाचर्या के उपर्युक्त तीस भेद हैं, पर यह भेद-संख्या अन्तिम नहीं लगती। ठाणाङ्ग (५.१.३६६) में दो भेद और मिलते हैं :
१.
उत्त० ३०.२५ की टीका में उद्धृत : संसट्ठमसंसट्ठा उद्धड तह अप्पलेवडा चेब। उग्गहिया पग्गहिया उज्झियधम्मा य सत्तमिया ।। ठाणाङ्ग ५.१.३६६ की टीका में उद्धृत : दत्ती उ जत्तिए वारे खिवई होति तत्तिया। अवोच्छिन्नणिवायाओ दत्ती होइ दवेतरा।।