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________________ ४० नव पदार्थ १०. द्रव्य जीव का स्वरूप (गाथा ३७-४२) : पहली और दूसरी गाथा में यह स्पष्ट है कि जीव के दो भेद होते हैं-(१) द्रव्य जीव और (२) भाव जीव । प्रथम गाथा में द्रव्य जीव के स्वरूप का सामान्य उल्लेख है। टिप्पणी ६ (पृ० २७) में इस सम्बन्ध में कुछ प्रकाश है। यहाँ उसके स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया जा रहा है। द्रव्य जीव के विषय में आगम में निम्न बातें कहीं गई (१) जीव द्रव्य चेतन पदार्थ है। एक बार गौतम ने महावीर से पूछा-“भगवन् ! क्या जीव चैतन्य है ?" महावीर ने उत्तर दिया : “जीव नियम से चैतन्य है और जो चैतन्य है वह भी नियम से जीव है। इससे स्पष्ट है कि जीव और चैतन्य का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। जीव उपयोग युक्त पदार्थ कहा गया है। गुणओ उवोग गुणो ‘उवओगलक्खणेणं जीवे' । उपयोग का अर्थ है ज्ञान-जानने की शक्ति और दर्शन-देखने की शक्ति । उपयोग जीव का गुण या लक्षण है। कहा है-“जीव-ज्ञान, दर्शन तथा सुख-दुःख की भावना से जाना जाता है।" (२) जीव द्रव्य अरूपी है। वह भावतः अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श पदार्थ है | उसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श नहीं होते और इसी कारण वह अमूर्त-इन्द्रियागोचर पदार्थ १. भग० ६.१० : जीवेणं भंते ! जीवे, जीवे जीवे ? गोयमा ! जीवे तथा नियमा जीवे, जीवे वि-नियमा जीवे। २. ठाण० ५.३.५३०; भग २.१० ३. भग० १३.४ ४. उत्त० २८ : वत्तणालक्खणो कालो जीवो उवओगलक्खणो। नाणेणं दंसणेण च सुहेण य दुहेण य।। ५. (क) ठा० ५.३.५३० : जीवत्थिकाए णं अवन्ने अगंधे अरसे अफासे अरूवी ...... भावतो अवन्ने अगंधे अरसे अफासे अरूवी। (ख) भग० २.१० : जीवात्थिकाए णं भंते ! कतिवन्ने कतिगंधे कतिरसे कइफासे ? गोयमा ! अवण्णे जाव अरूवी (ग) ठा० ४.१ : चत्तारि अस्थिकाय। अरूविकाया पं ते....... जीवत्थिकाए
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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