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________________ દર नव पदार्थ स्वामी कार्तिकेय ने भी लिखा है-“प्रथम चार गतियों के जीवों के होती है और दूसरी व्रतियों के'।" "अविपाका मुनीन्द्रानां सविपाकाखिलात्मनाम्"-भी इसी बात को प्रकट करता है। एक मत यह भी है कि सकाम निर्जरा सम्यकदृष्टि के ही होती है, वह मिथ्यादृष्टि के नहीं होती। स्वामीजी के अनुसार सकाम निर्जरा साधु-श्रावक, व्रती-अव्रती, सम्यकदृष्टि-मिथ्यादृष्टि सब के होती है। शर्त इतनी है कि तप निरवद्य और लक्ष्य कर्म-क्षय हो। जहाँ लक्ष्य कर्म-क्षय नहीं वहाँ शुद्ध तप भी सकाम निर्जरा का हेतु नहीं होता। पं० खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री ने एक विचार दिया है-“यथाकाल निर्जरा सभी संसारी जीवों के और सदाकाल हुआ करती है, क्योंकि बंधे हुए कर्म अपने समय पर फल देकर निर्जीर्ण होते ही रहते हैं। अतएव इसको निर्जरा-तत्त्व में नहीं समझना चाहिये। दूसरी तरह की निर्जरा तप आदि के प्रयोग द्वारा हुआ करती है। यह निर्जरा-तत्त्व है और इसीलिए मोक्ष का कारण है। इस प्रकार दोनों के हेतु में और फल में अन्तर है......।" इसी विचार को मुनि सूर्यसागरजी ने इस प्रकार उपस्थित किया है : “औदयिक भाव से प्रेरा हुआ यथा क्रमानुसार विपाक काल को प्राप्त हुआ जो शुभ-अशुभ कर्म अपनी बंधी हुई स्थिति के पूर्ण होने पर उदय में आता है, उसके भोग चुकने पर जो कर्म की आत्म-प्रदेशों से जुदाई होती है वह सविपाक निर्जरा कहलाती है। यह द्रव्य रूप है।.. इस निर्जरा से आत्मा कभी भी कर्म से मुक्त नहीं होता। क्योंकि जो कर्म छूटता है उससे अधिक उसी समय बंध जाता है... । जो तपस्या द्वारा बिना फल दिये हुए कर्मों की निर्जरा १. द्वादशानुप्रेक्षा : निर्जरा अनुप्रेक्षा : १०४ (पृ० ६१० पा० टि० १ में उद्धृत) २. देखिए गा० ४७-५० ३. इन प्रश्न का आगे विस्तार से विवेचन किया जायगा। ४. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र पृ० ३७८ ५. संयम-प्रकाश (उत्तरार्द्ध) प्रथम किरण पृ० ५८-५६ इस बात का समझाने के लिए उन्होंने उदाहरण दिया है-जैसे एक मनुष्य को चारित्र मोहनीय के उदय से क्रोध आया ओर क्रोध आने पर उसने क्रोधवश निज पर का मन-वचन-काय से अनेक कष्ट दिये और अनेकों से बैर बांध लिया। ऐसी दशा में पहिला कर्म तो क्रोध को उत्पन्न करके दूर हो गया, परन्तु, क्रोधवश जो क्रियायें उस जीव ने की उनसे फिर अनेक प्रकार के नवीन कर्म बंध गये। अतः मोक्षीर्थी के लिए सविपाक निर्जरा काम की नहीं है।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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