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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १ होती है अर्थात् तपश्चरण द्वारा कर्मों की फल देने की शक्ति का नाश करके जो निर्जरा होती है उसको अविपाक निर्जरा कहते हैं।... वही आत्मा का हित करनेवाली है। इसीसे शनैः शनैः सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है।" वाचक उमास्वाति ने भी तप और परीषहजय कृत निर्जरा को ही कुशलामूल तथा शुभानुबन्धक और निरनुबन्धक कहा है। अबुद्धिपूर्वा निर्जरा को उन्होंने अकुशलानुबन्धक कहा है। स्वामीजी ने अपनी बात निम्न रूप में कही है आठ कर्म छै जीव रे अनाद रा, त्यांरी उतपत आश्रव द्वार हो। ते उदे थइ नें पछे निरजरे, वले उपजें निरंतर लार हो।। ते करम उदे थइ जीव रे, समें समें अनन्ता झड जाय हो। भरीया नींगल जूं करम मिटें नहीं, करम मिटवा रो न जांणे उपाय हो।। बारे परकारे तप निरजरा री करणी, जे तपसा करे जांण २ जी। ते करम उदीर उदे आंण खेरे, त्यांने नेड़ी होसी निरवाण जी।। सहजां तो निरजरा अनाद री हुवे छे, ते होय २ ने मिट जाय जी। करम बंधण सूं निवरत्यो नाही, संसार में गोता खाय जी।। सावध जोगां सूं सेवे पाप अठारें, ते तों पाप री करणी जांणो रे। ते सावध करणी करतां पिण निरजरा हुवे छे, त्यांरो न्याय हीया में पिछांणो रे।। उदीरी उदीरी में करें क्रोधादिक, जब लागे छे पाप ना पूरो रे। उदीरी ने क्रोधादिक उदें आण्या ते, करम झरें पड़े दूरो रे ।। पाप री करणी करतां निरजरा हुवें छे, तिण करणी में जाबक खांमी रे । सावध जोगां पाप ने निरजरा हुवें छे, ते निरजरा तणों नहीं कामी रे।। (३) कर्म-क्षय की आकांक्षा बिना नाना प्रकार के कष्ट करने से : इस निर्जरा के उदाहरण इस प्रकार दिये जा सकते हैं : (क) एक मनुष्य को कर्म-क्षय की या मोक्ष की अभिलाषा तो नहीं है पर वह तृषा, क्षुधा, ब्रह्मचर्यवास, अस्नान, सर्दी, गर्मी, दंश-मशक, स्वेद, धूलि, पंक और मल के तप, कष्ट, परीषह से थोड़े या अधिक समय के लिए आत्मा को परिक्लेशित करता है। इस कष्ट से कर्मों की निर्जरा होती है। १. संयम-प्रकाश (पूर्वार्द्ध) चतुर्थ किरण पृ० ६५५-५६ २. देखिए पृ० ६०६ पा० टि० ३ ३. (क) १.१,४; (ख) २.४६,५६ (ग) टीकम डोसी री चर्चा ३.२१-२३
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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