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________________ ६१० नव पदार्थ पहिली स्वकाल प्राप्त निर्जरा तो चारों ही गति के जीवों के होती है और दूसरी तप द्वारा की हुई व्रतयुक्त जीवों के'।" (उ) 'चन्द्रप्रभचरित' में कहा है : “कर्मक्षपण लक्षणवाली निर्जरा दो प्रकार की होती है-एक कालकृत ओर दूसरी उपक्रमकृत । नरकादि जीवों के कर्म-भुक्ति से जो निर्जरा होती है, वह यथाकालजा निर्जरा है और जो तप से निर्जरा होती है, वह उपक्रमकृत निर्जरा है।" (ऊ) 'तत्त्वार्थसार' में लिखा है-“कर्मों के फल देकर झड़ने से जो निर्जरा होती है, वह विपाकजा निर्जरा है और अनुदीर्ण कर्मों को तप की शक्ति से उदयावलि में लाकर वेदने से जो निर्जरा होती है वह अविपाकजा निर्जरा है।" स्वामीजी ने पहली प्रकार की निर्जरा को सहज निर्जरा कहा है। उनके अनुसार यह अप्रयत्नमूला है। यह बिना उपाय, बिना चेष्टा और बिना प्रयत्न होती है। यह इच्छाकृत नहीं; स्वयंभूत है। इस निर्जरा को स्वकालप्राप्त, विपाकजा आदि जो विशेषण प्राप्त हैं, वे इस बात को अच्छी तरह सिद्ध करते हैं। यह ध्यान देने की बात है कि १. द्वादशानुप्रेक्षा : निर्जरा अनुप्रेक्षा १०३, १०४ : । सेव्वसिं कम्माणं, सत्तिविवाओ हवेइ अणुभाओ। तदणंतरं तु सडणं, कम्माणं णिज्जरा जाण ।। सा पुण दुविहा णेया, सकालपत्ता तवेण कयमाणा। चादुगदीणं पढमा, वयजुत्ताणं हवे विदिया।। २. चन्द्रप्रभचरितम् १८.१०६-११० : । यथाकालकृता काचिदुपक्रमकृतापरा। निर्जरा द्विविधा क्षेया कर्मक्षपणलक्षणा।। या कर्मभुक्तिः श्वभ्रादौ सा यथाकालजा स्मृता। तपसा निर्जरा या तु सा चोपक्रमनिर्जरा ।। ३. तत्त्वार्थसार : ७.२-४ : उपात्तकर्मणः पातो निर्जरा द्विविधा च सा। आद्या विपाकजा तत्र द्वितीया चाविपाकजा।। अनादिबन्धनोपाधिविपाकवशवर्तिनः। कर्मारब्धफलं यत्र क्षीयते सा विपाकजा।। अनुदीर्ण तपः शक्तया यत्रोदीर्णोदयावलीम् । प्रवेश्य वेद्यते कर्म सा भवत्यविपाकजा।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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