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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १ ६०६ वर्षा, अग्नि, क्षुधा, तृषा तथा चाबुक और अंकुशादि की मार द्वारा; नारकीय जीव तीन प्रकार की वेदना द्वारा; मनुष्य क्षुधा, तृषा, आधि, दारिद्र्य और कारागारवास आदि के कष्ट द्वारा और देवता परवशता और किल्विषता आदि द्वारा असातवेदनीय कर्म का अनुभव कर उसका परिशाटन करते हैं। यह अकाम निर्जरा है। यह सब के होती है। कर्म-क्षय की अभिलाषा से बारह प्रकार के तपों के करने से जो निर्जरा होती है, वह सकाम निर्जरा है। यह निर्जराभिलाषियों के होती है। (आ) “जिससे आत्मा दुर्जर शुभाशुभ कर्मों की निर्जरा करती है, वह निर्जरा दो प्रकार की है। जो व्रत के उपक्रम से होती है, वह सकाम निर्जरा है और जो नरकवासी आदि जीवों के कर्मों के स्वतः विपाक से होती है, वह अकाम निर्जरा है। (इ) वाचक उमास्वाति लिखते हैं-"निर्जरा दो प्रकार की होती है-एक अबुद्धिपूर्वक और दूसरी कुशलमूल । इनमें से नरकादि गतियों में जो कर्मों के फल का अनुभव बिना किसी तरह के बुद्धिपूर्वक प्रयोग के हुआ करता है, उसको अबुद्धिपूर्वक निर्जरा कहते हैं। तप और परीषहजय कृत निर्जरा कुशलमूल है।" (ई) स्वामी कार्तिकेय कहते हैं-"ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों की फल देने की शक्ति को विपाक-अनुभाग कहते हैं। उदय के बाद फल देकर कर्मों के झड़ जाने को निर्जरा कहते हैं। वह दो प्रकार की होती है-(१) स्वकालप्राप्त और (२) तपकृत । उनमें १. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : देवानन्दसूरिकृत सप्ततत्त्वप्रकरण अ०६ सकामनिज्जरा पुण निज्जराहिलासीणं छव्विहं बाहिरं छव्विहमभंतरं च तवंतवेंताणं २. धर्मशर्माभ्युदयम् २१.१२२-१२३ : दुर्जरा निर्जरत्यात्मा यया कर्म शुभाशुभम् । निर्जरा सा द्विधा ज्ञेया सकामाकामभेदतः।। सा सकामा स्मृता जैनैर्या व्रतोपक्रमैः कृता। अकामा स्वविपाकेन यथा श्वभ्रादिवासिनाम् ।। ३. तत्त्वा ६.७ भाष्य ६ : स द्विविधोऽबुद्धिपूर्वः कुशलमूलश्च। तत्र नरकादिषु कर्मफलविपाको योऽबुद्धिपूर्वकस्तमुद्यतोऽनुचिन्तयेदकुशलानुबन्ध इति। तपः परीषहजयकृतः कुशलमूलः। तं गुणतोऽनुचिन्तयेत् शुभानुबन्धो निरनुबन्धो वेति।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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