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________________ टिप्पणियाँ १. निर्जरा कैसे होती है ? (दो० १-७) : स्वामीजी ने प्रथम ढाल में निर्जरा के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। इस टिप्पणी से सम्बन्धित दोहों में स्वामीजी निर्जरा किस प्रकार होती है, यह बतलाते हैं । स्वामीजी के अनुसार निर्जरा निम्न प्रकार से होती है : (१) उदय में आए हुए कर्मों के फलानुभव से । (२) कर्म-क्षय की कामना से विविध तप करने से । (३) कर्म-क्षय की आकांक्षा बिना नाना प्रकार के कष्ट करने से । (४) इहलोक-परलोक के लिए नाना प्रकार के तप करते हुए । इन पर क्रमशः विस्तृत प्रकाश डाला जा रहा है। (१) उदय में आए हुए कर्मों के फलानुभव से : बंधे हुए 'कर्म उदय में आते हैं। इससे क्षुधा, तृषा, शीत, ताप आदि नाना प्रकार के कष्ट जीव के उत्पन्न होते हैं। वैसे ही सुख भी उत्पन्न होते हैं । सुख-दुःखरूप विविध प्रकार के फल दे चुकने के बाद कर्म-पुद्गल आत्म-प्रदेशों से स्वतः निर्जीण होते हैं । यह कर्म-भोग जन्य निर्जरा है । (२) कर्म - क्षय की कामना से विविध तप करने से : तपों का वर्णन आगे आयेगा । जो कर्म-क्षय की अभिलाषा से- आत्मशुद्धि के अभिप्राय से उन विविध तपों का अनुष्ठान करता है उसके भी निर्जरा होती है। यह प्रयोगजा निर्जरा है। उपर्युक्त दोनों प्रकार की निर्जरा के स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न विवेचन बड़े बोधपूर्ण हैं : (अ) श्री देवेन्द्रसूरि कहते हैं- 'एकेन्द्रिय आदि निर्यञ्च छेदन, भेदन, शीत, ताप, १. तत्त्वा० ८.२२ भाष्य; ८.२४ भाष्य : सर्वासां प्रकृतीनां फलें विपाको दयोऽनुभावो भवति । विविधः पाको विपाकः ततश्चानुभावात्कर्मनिर्जरा भवतीति
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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