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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) ६०५ तपस्या का फल (गा०४६-५२) ४६. उपर्युक्त बारह प्रकार का तप निर्जरा की क्रिया है। जो इच्छापूर्वक तपस्या करता है वह कर्मों को उदीर्ण कर-उदय में लाकर बिखेर देता है। मोक्ष उसके नजदीक आता जाता है। ४७. उपर्युक्त बारह प्रकार के तप करते समय जहाँ-जहाँ साधु के निरवद्य योगों का निरोध होता है, वहाँ-वहाँ तपस्या के साथ-साथ संवर होता है। और संवर होने से पुण्य का नवीन बंध रुक जाता है। ४८. उपर्युक्त बारह प्रकार के तपों में से कोई तप करते हुए जब श्रावक के अशुभ योगों का निरोध होता है, तब तपस्या के साथ-साथ विरति संवर होता है जिससे नए पाप कर्मों का आना रुक जाता है। ४६. इन तपों में से यदि अविरत भी कोई तप करता है तो उसके भी कर्म-क्षय होता है। कई इस तपस्या से संसार को संक्षिप्त कर शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करते हैं। साधु श्रावक और समदृष्टि के तपस्या द्वारा उत्कृष्ट कर्म-भार दूर होता है। और यदि तप में कदाचित् उत्कृष्ट तीव्र भाव आता है तो तीर्थंकर गोत्र तक का बंध होता है। ५१. तपस्या से जीव संसार का अन्त करता है, कर्मों का अन्त लाता है और इसी तपस्या के प्रताप से घोर संसारी जीव भी सिद्ध होता है। ५२. तप करोड़ों भवों के संचित कर्मों को एक क्षण में खपा देता है। तप-रत्न ऐसा अमूल्य है। इसके गुणों का पार नहीं आता। निर्जरा निरवद्य है ५३. निर्जरा-जीव का उज्ज्वल होना, कर्मों से निवृत्त होना-उनसे अलग होना है-इसलिए निर्जरा निरवद्य है। निर्जरा उज्ज्वलता की अपेक्षा निर्मल है अन्य किसी अपेक्षा से नहीं।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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