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________________ ६०४ नव पदार्थ ४६. बारे परकारे तप निरजरा री करणी, जे तपसा करें जांण २ जी। ते करम उदीर उदे आंण खेरे, त्यांने नेड़ी होसी निरवांण जी।। ४७. साध रे बारे भेदे तपसा करतां, जिहां २ निरवद जोग रूंधाय जी। तिहा २ संवर हुवें तपसा रे लारे, तिण सूं पुन लागता मिट जाय जी।। ४८. इण तप माहिलो तप श्रावक करतां, कठे उसभ जोग रूंधाय जी। जब विरत संवर हुवें तपसा लारे, लागता पाप मिट जाय जी।। ४६. इण तप माहिलों तप इविरती करतां, तिणरे पिण करम कटाय जी। कोइ परत संसार करें इण तप थी, वेगो जाए मुगत रे मांय जी।। ५०. साध श्रावक समदिष्टी तपसा करता, त्यारे उतकष्टी टले करम छोत जी। कदा उतकष्टो रस आवें तिणरे, तो वंधे तीर्थंकर गोत जी।। ५१. तप थी आंणे संसार नों छेहडो, वले आंणे करमां रो अंत जी। इण तपसा तणे परताप जीवडो, संसारी रो सिध होवंत जी।। ५२. कोड भावां रा करम संचीया हुवें तो, खिण में दिये खपाय जी। एहवों छे तप रतन अमोलक तिणरा गुण रो पार न आय जी।। ५३. निरजरा तो निरवद उजला हुवां थी, करम निवरते हुओ न्यार जी। तिण लेखे निरजरा निरवद कही ए, बीजूं तो निरवद नहीं छे लिगार जी।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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