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नव पदार्थ
९. पाँच भाव (२६-३६) :
यहाँ भाव का अर्थ है बँधे हुए कर्मों की अवस्था विशेष अथवा कर्म-बद्ध जीवों की अवस्था विशेष ।
संसारी जीव कर्म-बद्ध अवस्था में होते हैं। ये बँधे हुये कर्म हर समय फल नहीं देते । परिपाक अवस्था में ही सुख-दुःख रूप फल देना आरम्भ करते हैं। फल देने की अवस्था में आने को उदयावस्था या उदय भाव कहते हैं। जब बँधे हुये कर्म उदयवरथा में होते हैं, तब उस कर्म-बद्ध जीव की भी विशेष स्थिति होती है। नीव की इस स्थिति विशेष को औदयिक भाव कहते हैं ।
इसी प्रकार बँधे हुये कर्मों का उपशान्त अवस्था या होना उपशमावस्था अथवा उपशम भाव है। बँधे हुये कर्मों की उपशान्त अवस्था में उत्पन्न जीव की स्थिति विशेष को औपशमिक भाव कहते हैं ।
कर्मों का क्षयोपशांत अवस्था में होना क्षयोपशम अवस्था में क्षयोपशम भाव है। कर्मों की क्षयोपशम अवस्था में उत्पन्न जीव की स्थिति विशेष को क्षयोपशमिक भाव कहते हैं । कर्मों का नाश होना क्षयावस्था या क्षय भाव कहलाता है। बँधे हुये कर्मों की क्षयावस्था में उत्पन्न जीव की स्थिति विशेष को क्षायिक भाव कहते हैं।
सर्व कर्म परिणमन करते रहते हैं-अवस्थान्तर प्राप्त होते रहते हैं। इसे कर्मों की पारिणामिक अवस्था कहते हैं 1 बँधे हुये कर्मों की पारिणामिक अवस्था में जीव में उत्पन्न अवस्था में विशेष को पारिणामिक भाव कहते हैं।
औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन पाँच भावों की स्थिति में दो बातें होती हैं। - (१) कर्मों का क्रमशः उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम और परिणमन । कर्म जड़ पुद्गल हैं। (२) कर्मों के उदय आदि से जीव कितनी ही बातों से निष्पन्न होता है ।
कर्म आठ है : (१) ज्ञानावरणीय - जो आत्मा की ज्ञान-शक्ति को प्रकट होने से रोकता है; (२) दर्शनावरणीय जो आत्मा की देखने की शक्ति को रोकता है; (३) वेदनीय - जिससे जीव को सुख-दुःख का अनुभव होता है; (४) मोहनीय - जो आत्मा को मोह-विहल करता है, स्व-पर विवेक में बाधा पहुँचाता है; आत्मा के सम्यक् व चारित्र गुणों की घात करता है; (५) आयुष्य - जो प्राणी की जीवन-अवधि - आयु को निर्धारित