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जीव पदार्थ : टिप्पणी
लक्षण, गुण और पर्याय-ये द्रव्य के भाव हैं। लक्षण और गुण ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। जीव को उपयोग लक्षणवाला, उपयोग गुण वाला कहा गया है इससे स्पष्ट है कि लक्षण और गुण एकार्थक हैं। जीव के जो तेईस नाम बतलाये गये हैं उनसे सांसारिक जीव के अनेक लक्षण व गुण सामने आते हैं। पर्याय का अर्थ है जो एक के बाद एक हो। द्रव्य जीव की अवस्था में जो प्रति-समय परिवर्तन होता है-एक स्थिति का अंत हो दूसरी स्थिति का जन्म होता है वे पर्याय हैं। लक्षण, गुण और पर्याय जीव के भाव हैं। स्वामीजी कहते हैं जो जीव के भाव हैं उन्हें ही भाव जीव कहते हैं। वे अनेक
जीवों के ज्ञान, दर्शन, आचार विचार, सुख-दुःख, आयु, यश ऐश्वर्य, जाति, सुख आदि प्राप्तकर्ता की समर्थता-असमर्थता की तारतम्यता व भेद देखे जाते हैं। द्रव्यतः एक होने पर भी एक दूसरे से विचित्र मालूम देते हुए ये सब जीव भाव जीव हैं।
गीता में भी यही कहा गया है : “अव्यय आत्मा का कोई विनाश नहीं कर सकता।" "जिस प्रकार इस देह में कौमार्य के बाद यौवन और यौवन के बाद बुढ़ापा आता है, उसी प्रकार इस देह में रहने वाले देही का देहान्तर प्राप्त होती है।
आगे जाकर कृष्ण कहते हैं-"बुद्धि, ज्ञान, असंमोह, क्षमा, सत्य, दमन, शमन, सुख, दुःख, जन्म, मृत्यु, भय, अभय, अहिंसा, समता, संतुष्टि, तप, दान, यश, अपयश-प्राणियों के नाना प्रकार के ये भाव मुझे से ही उत्पन्न होते हैं। अगर यहाँ कृष्ण का अर्थ शुद्ध आत्म-तत्त्व लिया जाय तो अर्थ होगा कि आत्मा कहती है बुद्धि, ज्ञान आदि नाना भाव मुझ शाश्वत तत्त्व आत्मतत्त्व से ही उत्पन्न है। १. गीता २.१७ :
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।। २. गीता २.१३ :
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिधीरस्तत्र न मुह्यति ।। ३. गीता १०.४, ५
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः। सुखं दुखं भवोऽभावो भवं चाभयमेव च।। अहिंसा समता तुष्टिस्तपों दानं यशोऽयशः । भवन्ति भावा भूतानां मत्त एक पृथग्विधाः ।।