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नव पदार्थ
प्रतिपादन किया है। कर्मों का नेता होने से अपने सुख-दुःख का भी यह नायक व नेता है इसमें सन्देह नहीं। बाद के चरणों में नायक का दूसरा अर्थ स्वामी जी ने “न्याय का करने वाला" किया है।
(२३) अन्तरात्मा (गा० २४) : “अन्तः मध्यरूप आत्मा, न शरीर रूप इत्यन्तरात्मेति" यह शरीर आत्मा नहीं है। पर इस शरीर के अन्दर जो व्याप्त है वह आत्मा है।
जीव और शरीर-तिल और तेल, छाछ और घी की तरह परस्पर लोलीभूत रहते हैं। जीव समूचे शरीर में व्याप्त रहता है इसलिये उसे 'अन्तरात्मा' कहते हैं।
८. भाव जीव (गाथा २५) :
___ गाथा २ में दो प्रकार के जीव-द्रव्य जीव और भाव जीव का उल्लेख आया है। गाथा १ में बता दिया गया है कि द्रव्य जीव शाश्वत असंख्यात प्रदेशी पदार्थ हैं। प्रश्न होता है कि भाव जीव किसे कहते हैं ? इसी का उत्तर २५वीं गाथा में दिया गया है।
द्रव्य जीव नित्य पदार्थ पर वह कूटस्थ नित्य नहीं परिणामी नित्य है। इसका तात्पर्यार्थ यह है कि द्रव्य जीव शाश्वत होने पर भी उसमें परिणाम-अवस्थान्तर होते रहते हैं। जिस तरह स्वर्ण के कायम रहते हुए उसके भिन्न-भिन्न गहने होते हैं उसी तरह जीव पदार्थ कायम रहते हुए उसकी भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती हैं। द्रव्य जीव उत्पाद-व्ययध्रौव्य युक्त होता है। जैसे सोने की चूड़ियों को गला कर जब हम सोने का कण्ठा बनाते हैं तो कण्ठे की उत्पत्ति होती है, चूड़ियों का व्यय-नाश होता है और सोना सोने के रूप में ही रहता है उसी तरह जब जीव युवा होता है तो यौवन की उत्पत्ति होती है, बाल्य-भाव का व्यय होता है और जीव जीव रूप में ही रहता है। ...
इन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को पारिभाषिक-भाषा में 'पर्याय' कहते हैं। पर्याय वह है जो द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित होकर रहे । पर्याय-अवस्थान्तर द्रव्य और गुण दोनों में होते हैं। जिस तरह जल कभी बर्फ और कभी वाष्प रूप होता है उसी तरह एक ही मनुष्य बालक, युवक और वृद्ध होता है। ये आत्मा द्रव्य के अवस्थान्तर-पर्याय हैं। जिस तरह एक ही पुद्गल कभी शीत और कभी गर्म होता है, जो उसके स्पर्श गुण की अवस्थाएँ हैं, ठीक उसी प्रकार एक ही मनुष्य कभी ज्ञानी और कभी मूर्ख, कभी दुःखी और कभी सुखी होता है। ये आत्मा के चेतन गुण की अवस्थाएँ-पर्यायें हैं।