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________________ जीव पदार्थ : टिप्पणी ७ होती है और यह शक्ति इतनी तीव्र होती है कि एक समय (जैन धर्म के अनुसार काल की इकाई (Unit) में जीव अपने स्थान से लोक के अन्त तक जा सकता है। गमन करने की इस शक्ति के कारण जीव नाम जगत् है। कहा भी है-"अतिशयगमनाज्जगत्।" (१८) जन्तु (गा० १६) : “जननाज्जन्तु : “संसारी जीव जन्म-जन्मान्तर करता रहता है, इससे उसका नाम जन्तु है। जीव ने ८४ लाख योनियों में जन्म-मरण किया है। (१६) योनि (गा० २०) : “योनिरन्येषामुत्पादकत्वात्" अन्यों का उत्पादक होने से जीव का नाम योनि हैं। स्वामीजी ने भी यही परिभाषा दी है-“पर नो उत्पादक इण न्याय।" जीव जीव का उत्पादक नहीं हो सकता क्योंकि जीव स्वयंभूत होता है। वह घट, पट आदि पर वस्तुओं का उत्पादक होता है। इस अपेक्षा से जीव का अपर नाम योनि है। (२०) स्वयंभूत (गा० २१) : आत्मा को किसी ईश्वर ने नहीं बनाया। न वह संयोगी पदार्थ ही है। वह अपने आप में एक वस्तु है-“स्वयं-भवनात् स्वयंभू" । वह वस्तुओं के संयोग से बनी हुई नहीं है परन्तु एक स्वतन्त्र स्वयंभूत वस्तु है। न तो वह देह संयोग से उत्पन्न होती है और न देह के साथ उसका नाश होता है। ऐसा कोई संयोग नहीं जो आत्मा को उत्पन्न कर सके। जो वस्तु उत्पन्न हो सकती है उसी का नाश-विलय भी संभव है। जल-ऑक्सीजन और हाईड्रोजन से बना होने से हम रसायनिक प्रयोगों द्वारा उसमें से उक्त दोनों तत्त्व स्वतन्त्र रूप में प्राप्त कर सकते हैं परन्तु आत्मा को सिद्ध करने वाले-बनाने वाले अन्य द्रव्य प्राप्त न होने से वह स्वयं सिद्ध है। यही 'स्वयंभूत' शब्द का भाव है। आत्मा स्वयं सिद्ध पदार्थ है। (२१) सशरीरी (गा० २२) : शरीर अनेक तरह के हो सकते हैं। औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्मण। एक जगह से जाकर दूसरी जगह उत्पन्न होने तक अर्थात् रास्ते चलते जीव के दो शरीर-कार्मण और तैजस होते हैं । पर्याप्त स्थिति में तीन शरीर जीव के होते हैं-कार्मण, तैजस और औदारिक या वैक्रिय। आहारक शरीर विशिष्ट आत्माओं चतुर्दशपुर्वधारी मुनियों के हो सकता है। जब तक कर्मों का संयोग रहता है तब तक शरीर का सम्बन्ध भी रहता है इसलिये संसारी जीव को 'सशरीरी कहा गया है-"सह शरीरेणेति सशरीरी।" (२२) नायक (गा० २३) : “नायक-कर्मणां नेता"-जीव कर्मों का नेता है इससे उसका नाम नायक है। स्वामी जी ने गाथा २३ के प्रथम दो चरणों में इसी अर्थ का
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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