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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २)
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प्रयाश्चित
२२. प्रथम आभ्यन्तर तप प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त दस प्रकार
का बताया गया है। प्रायश्चित्त का अर्थ दोषों की आलोचना कर उनके लिए दण्ड लेना होता है। जो दोषों की आलोचना कर प्रायश्चित्त करते हैं, वे कर्मों का क्षय करते हैं और आराधक बन शीघ्र मोक्ष को पहुँचते हैं।
विनय (गा० २३-३७)
२३. विनय दूसरा आभ्यन्तर तप है। यह सात प्रकार का कहा
गया है-(१) ज्ञान, (२) दर्शन, (३) चारित्र, (४) मन, (५) वचन, (६) काय और (७) लोक-व्यवहार विनय। इनका बहुत विस्तार है।
२४. पाँचों प्रकार के ज्ञान की गुणगरिमा करना ज्ञानविनय है।
दर्शनविनय के दो भेद हैं-(१) शुश्रूषा और (२) अनासातना।
२५.
शुश्रूषा अर्थात् वयोवृद्ध साधुओं की सेवा करना, नत मस्तक हो उनकी वन्दना करना । यह शुश्रूषा भिन्न-भिन्न नाम से दस प्रकार की है।
२६-२७.गुरु आने से खड़ा होना, आसन छोड़ना, आसन के लिए
आमन्त्रण कर हर्षपूर्वक आसन देना, सत्कार-सन्मान देना, वन्दना कर हाथ जोड़े खड़ा रहना, आते देखकर सामने जाना, जब तक गुरु खड़े रहें खड़ा रहना, जब जायें तब पहुँचाने जाना-शुश्रूषा विनय है।
२८-२६. अनासातनाविनय के भगवान ने ४५ भेद कहे हैं। अरिहंत
और अरिहंतप्ररूपित धर्म, आचार्य और उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ क्रियावादी, संभोगी (समान धार्मिक), मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान-ये पंद्रह बोल हैं।