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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) ५६७ प्रतिसंलीनता (गा० १५-२०) १५. प्रतिसंलीना तप चार प्रकार का होता है। अलग-अलग नाम ये हैं-(१) कषाय प्रतिसंलीनता, (२) इन्द्रिय __ प्रतिसंलीनता, (३) योग प्रतिसंलीनता और (3) विविक्त शयनासनसेवनता। १६. श्रुत इन्द्रिय को विषयपूर्ण शब्दों से रोकना, विषय के शब्द न सुनना, विषय के शब्द कान में पड़ें तो उन पर राग-द्वेष न लाना श्रुत इन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप है। १७. इसी तरह चक्षुरिन्द्रिय का विषय रूप, घ्राणेन्द्रिय का विषय गंध, रसनेन्द्रिय का विषय रस और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श है। इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से रोकना क्रमशः श्रोत्रेन्द्रय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप कहलाता है। क्रोध को उत्पन्न न होने देना, उदय में आने पर उसे निष्फल करना; इसी तरह मान, माया, और लोभ को रोकना और उदय में आने पर उन्हें निष्फल करना कषाय संलीनता तप कहलाता है। १६. मन की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना और शुभ भावों में उसकी __ प्रवृत्ति करना और इसी तरह वचन और काय के सम्बन्ध में करना योग संलीनता तप कहलाता है। २०. स्त्री, पशु और नपुंसकरहित तथा निर्दोष स्थानक एवं शय्या आसन का सेवन करना विविक्तशय्यासन तप कहलाता बाह्य तपः आभ्यन्तर तप २१. अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रस-परित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता-ये जो तप ऊपर में कहे गए हैं, वे छहों बाह्य तप हैं । वे लोक-प्रसिद्ध हैं और बाहर से प्रकट होते हैं अतः उन्हें बाह्य तप गया कहा है। भगवान ने आभ्यन्तर तप भी छह बतलाए हैं। अब उनका वर्णन करता हूँ |
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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