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________________ ५६६ नव पदार्थ १५. परीसंलीणीया तप च्यार परकारें, त्यारां जूआजूआ छे नाम जी। इंद्री कषाय ने जोग संलीणीया, विवतसेणासणसेवणा तांम जी।। १६. सोतइंद्री में विषं नां सब्द सूं रूंधे, विर्षे सब्द न सुणे किं वार जी। कदा विर्षे रा सब्द कानां में पडीया, तो राग धेष न करें लिगार जी।। १७. इम चषूइंद्री रूप सूं संलीनता, घणइंद्री गंध सूं जांण जी। रसइंद्री रस तूं नें फरसइंद्री फरस सूं , सुरतइंद्री ज्यूं लीजो पिछांण जी।। १८. क्रोध उपजावारो रूंधण करवो, उदे आयों निरफल करें तांम जी। मांन माया लोभ इम हिज जांणों, कषाय संलीणीया तप हुवें आम जी ।। १६. पाडुआ मन ने रूंधे देणों, भलो मन परवरतावणो ताम जी। ____इम हिज वचन नें काया जांणों, जोग संलीणीया हुवें आंम जी।। २०. अस्त्री पसू पिंडग रहीत थांनक सेवे, ते सुध निरदोषण जांण जी। पीढ पाटादिक निरदोषण सेवें, विवतसेंणासण एम पिछांण जी।। २१. छव परकारें बाह्य तप कह्यों छे, ते प्रसिध चावो दीसंत जी। हिवें छ परकारें अभिंतर तप कहूं धूं, तो भाष्यो , श्री भगवंत जी ।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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