SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 620
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) ५६५ ८. इस प्रकार अनशन करने से साधु के शुभ योगों का निरोध होने से संवर होता है। श्रावक के अविरति दूर होने से विरति संवर होता है। परन्तु कष्ट सहने से दोनों कर्मों का क्षय होता है, इसलिए अनशन को निर्जरा के भेदों में स्थान दिया है। जैसे-जैसे भूख और प्यास बढ़ती है वैसे-वैसे कष्ट भी बढ़ता जाता है और जैस-जैसे कष्ट बढ़ता जाता है वैसे-वैसे अधिकाधिक कर्म क्षय होकर अलग होते जाते हैं। इस तरह प्रतिसमय अनन्त कर्म आत्म-प्रदेशों से झड़ते १०. ऊनोदरी (गा० १०-११) ऊन रहना ऊनोदरी तप है। द्रव्य और भाव, इस तरह ऊनोदरी तप के दो भेद हैं। उपकरण कम रखना और भरपेट आहार न करना-द्रव्य ऊनोदरी तप है। क्रोधादिक का रोकना, कलह आदि का निवारण करना भाव ऊनोदरी तप है। आहार और उपधि में समयभाव रखना उत्तम ऊनोदरी तप है। भिक्षाचरी १२. भिक्षा-त्याग से भिक्षाचरी तप होता है। भिक्षा-त्याग की प्रतिज्ञा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से विविध प्रकार की होती है। इन अभिग्रहों का विस्तार बहुत लम्बा है | रसत्याग १३. शुद्ध मन से रसों का त्याग कर, घी आदि विकृतियों के स्वाद को छोड़ने से तथा अरस और विरस आहार के भोजन में भी समभाव-अम्लानभाव रखने से जीव के रस-परित्याग तप की साधना होती है। शरीर को कष्ट देने से कायक्लेश तप होता है। विविध प्रकार के आसन करना, शीत तापादि सहना, शरीर न खुजलाना, शरीर-शोभा और श्रृंगार न करना आदि अनेक प्रकार का कायक्लेश तप है। कायक्लेश
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy