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________________ ५६४ नव पदार्थ ८. सुध जोग रूंध्या साधु रे हूवो संवर, श्रावक रे विरत हुइ ताय जी। पिण कष्ट कह्यां सूं निरजरा हूवे, तिणसूं घाल्यो छे निरजरा मांय जी।। ६. ज्यूं २ भूख तिरषा लागें, ज्यूं २ कष्ट उपजें अनंत जी। ज्यूं २ करम कटें हुवें न्यारा, समें २ खिरे , अनंत जी।। १०. उणो रहें ते उणोदरी तप छे, ते तो दरब नें भाव में न्यार जी। __दरब ते उपगरण उणा राखें, वले उणोइ करें आहार जी।। ११. भाव उणोदरी क्रोधादिक वरजे, कलहादिक दिये छे निवार जी। समता भाव छे आहार उपधि थी, एहवो उणोदरी तप सार जी।। १२. भिष्याचरी तप भिष्या त्याग्यां हुवें, ते अभिग्रहा छ विवध परकार जी। ते तो दरब षेतर काल भाव अभिग्रह छे, त्यांरो छे बोहत विस्तार जी।। १३. रस रो त्याग करें मन सुधे, छांड्यो विगयादिक रो सवाद जी। अरस विरस आहार भोगवे समता सूं, तिणरे तप तणी हुवें समाद जी ।। १४. काया कलेस तप कष्ट कीयां हुवें, आसण करें विविध परकार जी। सी तापादिक सहे खाज न खणे, वले न करें सोभा ने सिणगार जी।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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