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________________ ५८२ नव पदार्थ २. देशविरति : यह श्रावक के बारह व्रतरूप हैं। ३. दृष्टियाँ तीन हैं-(१) सम्यकदृष्टि, (२) मिथ्यादृष्टि और (३) सम्यक्मिथ्या दृष्टि । ४. चारित्र मोहनीय कर्म की २५ प्रकृतियाँ हैं। (१-४). अनन्तानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ, (५-८) अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध-मान-माया-लोभ, (६१२) प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध-मान-माया-लोभ, (१३-१६) संज्ज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ, (१७) हास्य मोहनीय, (१८) रति मोहनीय, (१६) अरति मोहनीय, (२०) भय मोहनीय, (२१) शोक मोहनीय, (२२) जुगुप्सा मोहनीय, (२३) स्त्री वेद, (२४) पुरुष वेद और (२५) नपुंसक वेद। ५. दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियाँ होती हैं-(१) सम्यक्त्व मोहनीय, (२) मिथ्यात्व मोहनीय और (३) मिश्र मोहनीय। मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से समुच्चयरूप से आठ बातें उत्पन्न होती हैं-यथाख्यात चारित्र को छोड़कर अवशेष चार चारित्र, देशविरति और तीन दृष्टियाँ । चारित्र मोहनीय के क्षयोपशम से चार चारित्र और देशविरति तथा दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से तीन दृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं। स्वामीजी ने चारित्र मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से किस प्रकार उत्तरोत्तर चारित्रिक विशुद्धता प्राप्त होती है, इसका वर्णन यहाँ बड़े सुन्दर ढंग से किया है। क्रम इस प्रकार है : (१) चारित्र मोहनीय की २५ प्रकृतियों में से कुछ सदा क्षयोपशमरूप में रहती हैं। इससे जीव अंशतः उज्ज्वल रहता है। इस उज्ज्वलता में शुभ अध्यवसाय का वर्तन होता (२) जब क्रमशः यह क्षयोपशम बढ़ता है तब गुणों में उत्कृष्टता आती है-क्षमा, दया आदि गुणों में वृद्धि होती है। शुभ लेश्या, शुभ योग, शुभ ध्यान और शुभ परिणाम का वर्तन होता है। ऐसा अन्तराय कर्म के क्षयोपशम और मोहनीयकर्म के दूर होने से होता है। (३) इस तरह शुभ ध्यान-परिणाम-योग-लेश्या से क्षयोपशम की वृद्धि होती है। अनन्तानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ की प्रकृतियाँ क्षयोपशम को प्राप्त होती हैं और देश-विरति उत्पन्न होती है। इसी तरह क्षयोपशम की वृद्धि होते-होते यथाख्यात चारित्र के सिवाय चारों चारित्र उत्पन्न होते हैं।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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