________________
निर्जरा पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ८
भिन्न-भिन्न दर्शनावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से निम्न बोल उत्पन्न होते हैं : (१) चक्षुदर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से दो बोल उत्पन्न होते हैं - (१) चक्षु इन्द्रिय और (२) चक्षु दर्शन ।
५८१
(२) अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से श्रोत, घ्राण, रस और स्पर्शन-ये चार इन्द्रियाँ और अचक्षुदर्शन प्राप्त होता है ।
(३) अवधिदर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिदर्शन उत्पन्न होता है । (४) केवलदर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता। दर्शनावरणीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय से केवलदर्शन उत्पन्न होता है।
दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियों में अचक्षुदर्शनावरणीय प्रकृति का किंचित् क्षयोपशम सदा रहता है। इससे अचक्षुदर्शन और स्पर्शनइन्द्रिय जीव के सदा रहते हैं। विशेष क्षयोपशम होने से चक्षु को छोड़ कर अवशेष चार इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं और उनसे अचक्षुदर्शन भी विशेष उत्कर्ष को प्राप्त होता है ।
इसी तरह जिस-जिस प्रकृति का और जैसा जैसा क्षयोपशम होता है उसके अनुसार वैसा-वैसा गुण जीव के प्रकट होता जाता है ।
दर्शन किस तरह निराकार उपयोग है, यह पहले बताया जा चुका है। कर्मों के सम्पूर्ण क्षय होने से जीव अनन्त दर्शन से सम्पन्न होता है तथा मन और इन्द्रियों की सहायता बिना वह सर्व भावों को एक साथ देखने लगता है। क्षयोपशमजनित पाँच इन्द्रिय और तीन दर्शनों से जीव में देखने की परिमित शक्ति उत्पन्न होती है। इस तरह क्षायोपशमिक दर्शन केवलदर्शन में समा जाता है । केवलदर्शन से जो देखने की अनन्त शक्ति प्रकट होती है उसी का अविकसित अंश क्षयोपशमजनित दर्शन है।
दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जीव में जो यह दर्शन-विषयक विशुद्धि - उज्ज्वलता उत्पन्न होती है, वह निर्जरा है ।
८. मोहनीय कर्म का क्षयोपशम और निर्जरा ( गा० २५-४० ) :
उपर्युक्त गाथाओं के मर्म को समझने के लिए निम्न लिखित बातों को याद रखना आवश्यक है
१. चारित्र पाँच हैं :- ( १ ) सामायिक चारित्र, (२) छेदोपस्थापनीय चारित्र, (३) परिहारविशुद्धिक चारित्र, (४) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र और (५) यथाख्यात चारित्र | इनका विवेचन पहले किया जा चुका है (देखिए पृ० ५२३) । ये चारित्र सकल चारित्र हैं ।