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________________ ५८० नव पदार्थ "है गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है-आभिनिबोधिकज्ञान साकारोपयोग (मतिज्ञान सा०), श्रुतज्ञान सा०, अवधिज्ञान सा०, मनःपर्यंवज्ञान सा०, केवलज्ञान सा०, मतिअज्ञान सा, श्रुतज्ञान सा० और विभंगज्ञान साकारोपयोग।" "हे भगवन् ! अनाकार उपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ?" "हे गौतम ! चार प्रकार का-चक्षुदर्शन अनाकारोपयोग, अचक्षुदर्शन अना०, अवधिदर्शन अना०, और केवलदर्शन अनाकारोपयोग।" स्वामीजी का कथन इसी आगम उल्लेख पर आधारित है। ज्ञान और अज्ञान दोनों साकार उपयोग हैं और दोनों का स्वभाव वस्तु को विशेष धर्मों के साथ जानना है। जो ज्ञान मिथ्यात्वी के होता है, उसे अज्ञान कहते हैं। ज्ञान और अज्ञान में इतना ही अन्तर है, विशेष नहीं । जैसे कुएँ का जल निर्मल, ठण्डा, मीठा, एक-सा होता है पर ब्राह्मण के पात्र में शुद्ध गिना जाता है और मातङ्ग के पात्र में अशुद्ध, वैसे ही मिथ्यात्वी के जो ज्ञान गुण प्रकट होता है, वह मिथ्यात्वसहित होने से अज्ञान कहा जाता है। वही विशेष बोध जब सम्यक्त्वी के उत्पन्न होता है तब ज्ञान कहलाता है। ज्ञान-अज्ञान दोनों उज्ज्वल क्षायोपशमिक भाव हैं। वे आत्मा की निर्मलताउज्ज्वलता के द्योतक हैं। ज्ञान-अज्ञान को प्रकट करनेवाली क्षयोपशमजन्य निर्मलता निर्जरा है। ७. दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम और निर्जरा (गा० १९-२३) : १. दर्शन चार प्रकार का कहा गया है-(१) चक्षुदर्शन (२) अचक्षुदर्शन (३) अवधिदर्शन और (४) केवलदर्शन । इनकी परिभाषाएँ पहले दी जा चुकी हैं। (देखिए पृ० टि० ३०७)। २. इन्द्रियाँ पाँच हैं-(१) श्रोत्रेन्द्रिय (२) चक्षुरिन्द्रिय, (३) घ्राणेन्द्रिय, (४) रसनेन्द्रिय और (५) स्पर्शनेन्द्रिय। ३. दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियाँ हैं-(१) चक्षुदर्शनावरणीय, (२) अचक्षुदर्शनावरणीय, (३) अवधिदर्शनावरणीय, (४) केवलदर्शनावरणीय, (५) निद्रा, (६) निद्रा-निद्रा, (७) प्रचला, (८) प्रचला-प्रचला और (६) स्त्यानर्धि (स्त्यानगृद्धि)। इनकी व्याख्या पहले की जा चुकी है (देखिए पृ० ३०७ टि० ५। समुच्चय रूप से दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से आठ बोल उत्पन्न होते हैं-पाँचों इन्द्रियाँ तथा केवलदर्शन को छोड़कर तीन दर्शन ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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