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निर्जरा पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ६
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पाँच ज्ञानावरणीय कर्मों में से मतिज्ञानावरणीय और श्रुतज्ञानावरणीय का सदा कुछ-न-कुछ क्षयोपशम रहता है जिससे हर परिस्थिति में जीव के कुछ-न-कुछ मात्रा में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान अनाच्छादित रहते हैं। अर्थात् प्रत्येक जीव के कुछ-न-कुछ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान रहते ही हैं। मतिज्ञानावरणीय और श्रुतज्ञानावरणीय कर्मों का किंचित् क्षयोपशम नित्य रहने से, उस क्षयोपशम के अनुपात से जीव कुछ मात्रा में स्वच्छ-उज्ज्वल रहता है। जीव की यह उज्ज्वलता निर्जरा है। भगवती सूत्र के अनुसार दो ज्ञान अथवा दो अज्ञान से कमवाले जीव नहीं होते । उत्कृष्ट में चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान होते हैं। केवलज्ञानी के एक केवलज्ञान होता है। नन्दीसूत्र में भी मति और श्रुतज्ञान को तथा मति और श्रुतअज्ञान को एक दूसरे का अनुगत कहा है। इससे भी कम-से-कम दो ज्ञान अथवा दो अज्ञानवाले ही जीव सिद्ध होते हैं। ६. ज्ञान और अज्ञान साकार उपयोग और क्षायोपशमिक भाव हैं (गा० १८) :
उपयोग अर्थात् बोधरूप व्यापार । यह जीव का लक्षण है।
जो बोध ग्राह्यवस्तु को विशेषरूप से जानता है, उसे साकार उपयोग कहते हैं और जो बोध ग्राह्यवस्तु को सामान्यरुप से जानता है, उसे निराकार उपयोग कहते हैं। ज्ञान साकार उपयोग है और दर्शन निराकार उपयोग ।
उपयोग के विषय में आगम में निम्न वार्तालाप मिलता है"हे भगवन् ! उपयोग कितने प्रकार का है ?"
"है गौतम ! वह दो प्रकार का है-एक साकार उपयोग है और दूसरा अनाकार उपयोग।"
"हे भगवन् ! साकार उपयोग कितने प्रकार का है ?"
१. भगवती ८.२ :
गोयमा ! जीवा नाणी वि अन्नाणी वि; जे नाणी ते अत्थेगतिया दुन्नाणीजे दुन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य। जे अन्नाणी ते अत्थेगतिया दुअन्नाणी
जे दुअन्नाणी ते मइअन्नाणी सुयअन्नाणी य। २. नन्दी : सू० २४ :
जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थाभिणिबोहियनाणं दोऽवि एयाइं अण्णमण्णमणुगयाई (क) पन्नवणा पद २६ (ख) भगवती १६.७