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निर्जरा पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ६
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(४) चारित्र मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न उपर्युक्त सारे गुण उत्तम हैं। सर्वचारित्र मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न यथाख्यात चारित्र के प्राप्त होने से जो गुण उत्पन्न होते हैं उनके ही अंशरूप हैं-उन्हीं के नमूने हैं।
(५) चारित्र विरति संवर है। उससे नए कर्मों का आगमन रुकता है। जीव पापों के दूर होने से निर्मल होता है तब चारित्र उत्पन्न होता है। चारित्र की क्रिया शुभयोग में है और उससे कर्म कटते हैं तथा क्षयोपशम भाव से जीव उज्ज्वल होता है। जीव के आत्म-प्रदेशों की यह निर्मलता निर्जरा है।
दर्शन मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से समुच्चयरूप से शुभ श्रद्धान उत्पन्न होता है-तीन उज्ज्वल दृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं?
मिथ्यात्व मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से मिथ्यादृष्टि उज्ज्वल होती है। इससे जीव कुछ पदार्थों की सत्य श्रद्धा करने लगता है।
मिश्र मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से सममिथ्यादृष्टि उज्ज्वल होती है। अब जीव और भी पदार्थों की शुद्ध श्रद्धा करने लगता है।
सम्यक्त्व मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से शुद्ध सम्यक्त्व प्रकट होता है और जीव नवों ही पदार्थों की शुद्ध श्रद्धा करने लगता है।
जब तक मिथ्यात्व मोहनीयकर्म का उदय रहता है तब तक सम्यक्मिथ्या दृष्टि नहीं आती। सम्यक्त्व मोहनीय का उदय रहता है तब तक क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता।
दर्शन मोहनीयकर्म का स्वभाव ही मनुष्य को भ्रम-जाल में डाले रहना-शुभ दृष्टि उत्पन्न न होने देना है।
दर्शन मोहनीय के सम्पूर्ण क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। सम्यक्त्व सम्पूर्णतः विशुद्ध और अटल होता है। दर्शन मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न तीनों दृष्टियाँ क्षायिक सम्यक्त्व की अंशरूप हैं। ९. अन्तराय कर्म का क्षयोपशम और निर्जरा (गा० ४१-५५) :
१. पाँच लब्धियाँ इस प्रकार हैं-(१) दान लब्धि, (२) लाभ लब्धि, (३) भोग लब्धि, (४) उपभोग लब्धि और (५) वीर्य लब्धि।
२. तीन वीर्य इस प्रकार हैं-(१) बाल वीर्य, (२) पण्डित वीर्य और (३) बालपण्डित वीर्य । इनका वर्णन पहले किया जा चुका है (देखिए पृ० ३२५ टि० ८ (५) ।