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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ५ ढाई द्वीप समुद्र पर्यन्त रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है। काल से जघन्य और उत्कृष्टतः पल्योपम-असंख्यातवें भाग भूत व भविष्य काल को जानता-देखता है। भाव से अनन्त भावों को जानता-देखता है। सभी भावों के अनन्तवें भाग को जानता देखता है । विपुलमति मनः पर्यवज्ञानी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध तथा अन्धकारहित जानता-देखता है' । (५) केवलज्ञान : केवलज्ञानी बिना किसी इन्द्रिय और मन की सहायता से द्रव्य से सर्वद्रव्यों को, क्षेत्र से लोकालोक, सर्व क्षेत्र को, काल से सर्व काल को, भाव से सर्व भावों को जानता-देखता है। केवलज्ञान सभी द्रव्यों के परिणाम और भावों का जाननेवाला है । वह अनन्त, शाश्वत तथा अप्रतिपाती- नहीं गिरनेवाला होता है । केवलज्ञान एक प्रकार का है। २. अज्ञान तीन हैं (१) मतिअज्ञान, (२) श्रुतअज्ञान और (३) विभंगज्ञान । यहाँ अज्ञान शब्द ज्ञान के विपरीतार्थ रूप में प्रयुक्त नहीं है। उसका अर्थ ज्ञान का अभाव ऐसा नहीं है। मिथ्यादृष्टि के मति, श्रुत और अवधिज्ञान को ही क्रमशः मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान कहा गया है । (१) मतिअज्ञानः मतिअज्ञानी मतिअज्ञान के विषयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानता देखता है। (२) श्रुतअज्ञान : श्रुतअज्ञानी श्रुतअज्ञान के विषयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को कहता, जानता और प्रारूपित करता है । १. २. ५७७ ३. (क) नन्दी : सू० १८ (ख) भगवती ८.२ (क) नन्दी : सू० २२ गा० ६६ : अह सव्वदव्वपरिणाम, - भावविण्णत्तिकारणमणंतं । सासयमप्पडिवाई, एगविहं केवलं नाणं ।। (ख) भगवती ८.२ नन्दी : सू० २५ : विसेसिया सम्मदिट्ठिस्स मई मइनाणं, मिच्छदिट्ठिस्स मई मइअन्नाणं । सम्मदिद्विस्स सुअं सुयनाणं, मिच्छदिट्ठिस्स सुयं सुयअन्नाणं । ......विसेसिअं सुयं
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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