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________________ ૬૭૨ नव पदार्थ रहता है और जीव कर्मों से मुक्त नहीं होता। . स्वामीजी कहते हैं-“कर्मों को झाड़ने की प्रक्रिया को अच्छी तरह समझे बिना कर्मों से मुक्त होना असम्भव है। जैसे घाव में सुराख हो और पीप आती रहे तो उस अवस्था में ऊपर का मवाद निकलने पर भी घाव खाली नहीं होता, वैसे ही जब तक नये कर्मों के आगमन का स्रोत चलता रहता है तब तक फल देकर पुराने कर्मों के झड़ते रहने पर भी जीव कर्मों से मुक्त नहीं होता।" ३. उदय आदि भाव और निर्जरा (गा० ५-८) : उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम और परिणामी-इन पाँचों भावों का विवेचन पहले विस्तार से किया जा चुका है (देखिए पृ० ३८ टि०६)। संसारी जीव अनादि काल से कर्मबद्ध अवस्था में है। बंधे हुए कर्मों के निमित्त से जीव की चेतना में परिणाम-अवस्थान्तर होते रहते हैं. जीव के परिणामों के निमित्त से नए पुद्गल कर्मरूप परिणमन करते हैं। नए कर्म-पुद्गलों के परिणमन से आत्मा में फिर नए भाव होते हैं। यह क्रम इस तरह चलता ही रहता है। पुद्गल-कर्म जन्य जैविक परिवर्तन पर आत्मिक विकास-हास, आरोह-अवरोह का क्रम अवलम्बित रहता है। कर्म-परिणमन से जीव में नाना प्रकार की अवस्थाएँ और परिणाम होते हैं। उससे जीव में निम्न पारिणामिक भाव उत्पन्न होते हैं १. गति परिणाम-नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देवगति रूप २. इन्द्रिय परिणाम-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि रूप ३. कषाय परिणाम-राग द्वेष रूप ४. लेश्या परिणाम-कृष्णलेश्यादि रूप ५. योग परिणाम-मन-वचन-काय व्यापार रूप ६. उपयोग परिणाम-बोध-व्यापार ७. ज्ञान परिणाम ८. दर्शन-परिणाम-श्रद्धान रूप ६. चारित्र परिणाम १०. वेद परिणाम-स्त्री, पुरुषु, नपुंसक वेद रूप १. जीवपरिणामहेऊ कम्मत्ता पोग्गला परिणति। पुग्गलकम्मनिमित्तं जीवो वि तहेव परिणमइ ।। २. ठाणाङ्ग १०.७१३
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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