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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : १) ५६५ ५२. वीर्य-लब्धि निरन्तर चौदहवें गुणस्थान तक रहती है। बारहवें गुणस्थान तक क्षयोपशम भाव है तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में क्षायिक भाव । ५३. लब्धि-वीर्य को वीर्य कहा गया है और करण-वीर्य को योग कहा गया है। जब तक लब्धि-वीर्य रहता है तभी तक करण-वीर्य रहता है और तभी तक पुद्गल-संयोग रहता है। ५४. पुद्गल के बिना वीर्य शक्ति नहीं होती। पुद्गल के बिना योग-व्यापार भी नहीं होता। जब तक जीव से पुद्गल लगे रहते हैं तब तक योग वीर्य रहता है। ५५. वीर्य जीव का स्वाभाविक गुण है और यह अंतराय कर्म अलग होने से प्रकट होता है। वह वीर्य भाव-जीव है, इसमें जरा भी शंका मत करो। ५६. एक मोहकर्म के उपशम होने से दो उपशम-भाव उत्पन्न होते हैं-(१) उपशम सम्यक्त्व और (२) उपशम चारित्र। यह जीव का उज्ज्वल होना है। उपशम भाव (गा० ५६-५७) ५७. दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम होने से प्रधान उपशम चारित्र प्रकट होता है | ५८. चार घनघाती कर्मों के क्षय होने से क्षायिक-भाव प्रकट होता है। ये जीव के सर्वथा उज्ज्वल गुण हैं। इनके स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं। क्षायिक भाव (गा० ५८-६२) ५६. ज्ञानावरणीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न होता है और दर्शनावरणीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय होने से प्रधान केवलदर्शन उत्पन्न होता है।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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