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निर्जरा पदार्थ (ढाल : १)
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३६. मिश्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम होने से सममिथ्या दृष्टि
उज्ज्वल होती है। तथा जीव अधिक पदार्थों को शुद्ध श्रद्धने लगता है। क्षयोपशम में ऐसा गुण उत्पन्न होता है।
३७. सम्यक्त्व-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम होने से सम्यक्त्व
रूपी प्रधान रत्न उत्पन्न होता है। इस क्षयोपशम से जीव नवों ही पदार्थों की शुद्ध श्रद्धा करने लगता है। क्षयोपशम भाव ऐसा ही गुणकारी है।
३८. जब तक मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म उदय में रहता है, तब
तक सममिथ्या दृष्टि नहीं आती। मिश्र-मोहनीय कर्म के उदय से जीव सम्यक्त्व नहीं पाता।
३६. सम्यक्त्व-मोहनीय कर्म जब तक उदय में रहता है तब
तक क्षायिक सम्यक्त्व नहीं आता। मोहनीय कर्म का ऐसा ही आवरण है कि यह जीव को भ्रम-जाल में डाल
देता है। ४०. तीनों ही दृष्टियाँ क्षयोपशम भाव हैं। ये तीनों ही शुद्ध श्रद्धा
रूप हैं। ये तो क्षायिक सम्यक्त्व की बानगी-नमूने मात्र
४१.
अंतराय कर्म के क्षयोपशम होने से आठ उत्तम गुण उत्पन्न होते हैं-पाँच लब्धि और तीन वीर्य । अब इनका विस्तार सुनो।
अंतराय कर्मों के जयोपशम से उत्पन्न
भाव
(गा० ४१-५५)
४२. अंतराय कर्म की पाँचों ही प्रकृतियाँ सदा प्रत्यक्षतः
क्षयोपशम रूप में रहती हैं, जिससे पाँच लब्धि और
बालवीर्य अल्प प्रमाण में उज्ज्वल रहते हैं। ४३. दानांतराय कर्म के क्षयोपशम होने से दान देने की
लब्धि उत्पन्न होती है। लाभांतराय कर्म के क्षयोपशम होने से लाभ की लब्धि प्रकट होती है।