SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 587
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६२ नव पदार्थ ४४. भोगांतराय षयउपसम्यां, भोग लब्द उपजें जें ताय हो। उपभोगांतराय खयउपसम हूआं, उपभोग लब्द उपजें आय हो।। ४५. दांन देवा री लब्द निरंतर, दांन देवे ते जोग व्यापार हो। लाभ लब्द पिण निरतंर रहें, वस्तु लाभे ते किण ही वार हो।। ४६. भोग लब्द तो रहें , निरंतर, भोग भोगवे ते जोग व्यापार हो। उपभोग पिण लब्द छे निरंतर, उपभोग भोगवे जिण वार हो।। ४७. अंतराय अलगी हूआं जीव रे, पुन सारूं मिलसी भोग उपभोग हो। साधु पुदगल भोगवे ते सुभ जोग छ, ओर भोगवे ते असुभ जोग हो।। ४८. वीर्य अंतराय षयउपसम हूआं, वीर्य लब्द उपजें जें ताय हो। वीर्य लब्द ते सगत छे जीव री, उत्कष्टी अनंती होय जाय हो।। ४६. तिण वीर्य लब्द रा तीन भेद छ, तिणरी करजो पिछांण हो। बाल वीर्य कह्यों में बाल रो, ते चोथा गुणठाणा ताई जांण हो।। ५०. पिंडत वीर्य कह्यों पिंडत तणो, छठा थी लेइ चवदमें गुणठांण हो। बालपिंडत वीर्य कह्यों छे श्रावक तणो, ए तीनोंई उजल गुण जांण हो।। ५१. कदे जीव वीर्य ने फोडवे, ते जें जोग व्यापार हो। सावद्य निरवद्य जोग छे ते वीर्य सावद्य नहीं , लिगार हो।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy