________________
नव पदार्थ
चेता-पुद्गलों को संग्रह करने वाला कहा गया है। ('चेयाइ ति चेता पुद्गलानां चयकारी-अभ०) जीव के शरीरादि की रचना भी इसी कारण से होती है।
() जेता (गा० १०) : कर्मों का बन्धन आत्मा की विभाव परिणति से होता है और उनका नाश स्वभाव परिणति से। दोनों परिणतियाँ जीव के ही होती हैं। अतः जैसे वह कर्मों को बाँधने वाला है वैसे ही उनका नाश कर उन पर विजय पाने वाला होने से 'जेता' कहा जाता है।
स्वभाव रूप से ही जीव में अनन्त वीर्यशक्ति होती है। परन्तु कर्मों के आवरण के कारण वह शक्ति मंद हो जाती है। संसारी जीव कर्मों से आबद्ध होने पर भी अपने स्वभाव में स्थित होता है। इसका अर्थ यह है कि कर्मावरण से उसके स्वाभाविक गुण मंद हो जाने पर भी सर्वथा नष्ट नहीं होते। जीव अपने वीर्य का स्फोटन कर दारुण कर्म-बन्द न को विच्छिन्न करने में सफल होता है। इस तरह कर्म-रिपुओं को जीतने का सामर्थ्य रखने से जीव का एक अभिवचन जेता है ('जेय' त्ति जेता कर्मरिपूणाम-अभ०)।
(१०) आत्मा (गा० ११) : जब तक जीव कर्मों का आत्यन्तिक क्षय नहीं करता उसे बार-बार जन्म-मरण करना पड़ता है और इस जन्म-मरण की परम्परा में वह भिन्न-भिन्न गति (मनुष्य, पशु-पक्षी आदि) अथवा योनियों में उत्पन्न होता है और नाश को प्राप्त होता है। जब तक कर्मों से छुटकारा नहीं होता तब तक जीव को विश्राम नहीं मिलता। कर्मों से मुक्ति पाकर ही वह मोक्ष के अनन्त सुख में शाश्वत स्थिर हो सकता है। 'आत्मा' 'हिंडुक' 'जगत' आदि जीव के नाम इसी अर्थ के द्योतक हैं । अभयदेव सूरि ने लिखा है-'आय' ति आत्मा सततगामित्वात् ।
(११) रंगण (गा० १२) : "रंङ्गणं रागः तद्योगाद्रंगणः।" 'रंगण' राग को कहते हैं। राग से युक्त होने के कारण जीव रंगण कहलाता है। संसारी जीव राग-द्वेष की तरंगो में बहता रहता है। उसकी आत्मा राग-द्वेष की भावनाओं से आच्छादित रहती है। इन्हीं राग-द्वेषों में रंगे रहने-अनुरक्त रहने के कारण जीव को रंगण कहा गया है।
(१२) हिंडुक (गा० १३) : इसका प्रायः वही अर्थ है जो 'आत्मा' का है। अभयदेव ने लिखा है-'हिंडुए' ति हिण्डकत्वेन हिण्डकः गमनशील इत्यर्थः।"
(१३) पुद्गल (गा० १४) : इसकी व्यवस्था अभयदेव सूरि ने इस प्रकार की है-“पूरणाद् गलनाच्च वपुरादीनामिति पुद्गलाः । सांसारिक जीव जन्म-जन्म में पौद्गलिक शरीर, इन्द्रियाँ आदि को धारण करता रहता है। इसमे जीव का नाम पुद्गल है। जीव