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जीव पदार्थ : टिप्पणी ७
भी सम्भव नहीं। आत्मा को 'भूत' इसी हेतु से कहा गया है। जीव कभी अजीव नहीं हो सकता-यही उसका भूतत्व है।
(५) सत्त्व (गा० ७) : भगवती सूत्र २.१ में सत्त्व की परिभाषा इस प्रकार से मिलती है- “जम्हा सत्ते सुभाऽसुभेहिं कम्मेहिं तम्हा 'सत्ते' ति वत्तव्वं सिया।" टीकाकार अभयदेव सूरि ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है-'सत्ते' का अर्थ है-'सक्तः'-आसक्त अथवा 'शक्तः-समर्थ। कर्म' का अर्थ है क्रिया। जीव सुन्दर असुन्दर क्रिया में-शुभ अशुभ क्रिया में आसक्त अथवा समर्थ है, अतः वह सत्त्व है। स्वामी जी की परिभाषा इसी के अनुरूप है। ‘सक्तः' का अर्थ सम्बद्ध भी होता है। शुभाशुभ कर्मों से संबद्ध होने से जीव सत्त्व
(६) विज्ञ (गा० ७) : इसकी परिभाषा - "जम्हा तित्त-कडु-कसायं-ऽबिल-महुरे रसे जाणइ तम्हा 'विन्नु त्तिवत्तव्वं सिया (भग०.२.१)।"
यह अच्छा शब्द है, यह बुरा शब्द है; यह मधुर है, यह खट्टा है, यह कडुवा है; यह सफेद है, यह लाल है; यह दुर्गन्ध है, यह सुगन्ध है; अभी सर्दी पड़ रही है, अभी गर्मी पड़ रही है आदि इन्द्रियों के भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान-अनुभव यदि किसी को होता है तो वह जीव पदार्थ ही है अतः जीव को 'विज्ञ'-कहा गया है। मैं इस स्थिति में हूँ, गरीब हूँ, रुग्ण हूँ, स्वस्थ हूँ आदि बातों का स्पष्ट अनुभव यदि किसी पदार्थ में है तो वह जीव पदार्थ में है। इस हेतु से भी वह 'विज्ञ' कहा गया है।
(७) वेद (गा० ८) : स्वामी जी की परिभाषा का आधार यह पाठ-“वेदेति य सुह-दुक्खं तम्हा 'वेदो' त्ति वत्तव्वं सिया (भग० २.१)।" वेदना ज्ञान-सुख-दुःख का अनुभव-ज्ञान जिसमें हो वह 'वेदक' कहलाता है।
संसार में जरा-मरण, आधि-व्याधि से उत्पन्न नाना दुःख तथा धन, स्त्री, पुत्रादि से उत्पन्न नाना सुखों का अनुभव जीव करता है इसलिये उसे 'वेद' या वेदक' कहा गया
(E) चेता (गा० ६) : संसारी जीव, कर्म-परमाणुओं से लिप्त रहते हैं। जब चेतन जीव राग-द्वेष के वशीभूत होकर विभाव में रमण करता है तब उसके चारों ओर से रहे हुए कर्म-परमाणु उसके प्रदेशों में प्रवेश वहाँ उसी प्रकार अवस्थित हो जाते हैं जिस तरह दूध में डाला हुआ पानी उसमें समा जाता है। दूध और पानी की तरह एक क्षेत्रवगाही हो आत्मा और कर्म परस्पर ओत-प्रोत हो जाते हैं। संसारी जीव इसी न्याय से