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नव पदार्थ
जो प्रदेशों का समूह हो-उसे अस्तिकाय कहते हैं। जीव एक स्वतन्त्र पदार्थ हैं-यह ऊपर सिद्ध किया जा चुका है। जीव स्वतन्त्र रूप से विद्यमान है और असंख्यात प्रदेशों का समूह हैं, इसलिये जीवास्तिकाय कहलाता है। जीव अपने कर्मानुसार अनेक देह धारण करता है परन्तु छोटे-से-बड़े शरीर में भी उसके असंख्यात प्रदेशीपन में कमी या अधिकता नहीं होती। चींटी और हाथी दोनों के जीव असंख्यात प्रदेशी हैं।
(३) प्राण (गा०६) : स्वामीजी का परिभाषा भगवती सूत्र २.१ के पाठ पर आधारित है। वह पाठ इस प्रकार है : ‘जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा, उस्सइ वा, णीससइ वा तम्हा 'पाणे' त्ति वत्तवं सिया।" जीव श्वास-निःश्वास लेता है इसमें वह प्राणी है। 'प्राणी' शब्द का दूसरा अर्थ इस प्रकार है : जैन धर्म में दस जीवन शक्तियाँ मानी गई हैं(१) श्रोत्रेन्द्रिय-बल प्राण, (२) चक्षुरिन्द्रिय-बल प्राण, (३) घ्राणेन्द्रिय-बल प्राण, (४) रसनेन्द्रिय-बल प्राण, (५) स्पर्शनेन्द्रिय-बल प्राण, (६) मन-बल प्राण, (७) वचन-बल प्राण, (८) काय-बल प्राण, (६) श्वासोश्वास-बल प्राण और (१०) आयुष्य-बल प्राण । प्रत्येक संसारी जीव में कम-अधिक संख्या में ये प्राण शक्तियाँ मौजूद रहती हैं। सीमित आयु, श्वासोच्छवाध्वास की शक्ति, पांचो इन्द्रियों में से कम-से-कम सपर्शेनेन्द्रिय, मन, वचन और शरीर में से एक शरीर बल इस कम-से-कम जीवन-शक्तियाँ तो वनस्पति आदि स्थावर जीवों के भी हर समय मौजूद रहती ही हैं। इन बलों, प्राणों, जीवन-शक्तियों का धारण करना ही जीवन है और चूंकि कम-से-कम ४ प्राण बिना कोई संसारी जीव नहीं होता अतः सब प्राणी हैं।
(४) भूत (गा० ६) : इनकी आगमिक परिभाषा इस रूप में है : "जम्हा भूते, भवति, भविस्ससति य तम्हा 'भूए' त्ति वत्तव् सिया (भग० २.१)।" था, है और रहेगा-जीव का ऐसा स्वभाव होने से वह भूत कहलाता है। स्वामी जी की परिभाषा भी यही है। 'भवन' धर्म की विवक्षा से जीव भूत है।
जीव सदा जीवित रहता है। वह कभी मरता नहीं। किसी भी काल में जीव अपने चैतन्य स्वभाव को नहीं छोड़ता। इसलिए सर्व जीव अपने चैतन्य स्वभाव में सदा जीवित रहते हैं। चेतन स्वभाव को छोड़ना जीव द्रव्य के लिए सम्भव नहीं इसलिए उसका मरण
१. भगवती ७.८ २. काल ३. नाक