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________________ ५४४ नव पदार्थ "हे गौतम ! हीन होता है, तुल्य नहीं होता, न अधिक होता है। अनन्तगुना हीन होता है। इसी प्रकार यथाख्यात संयत के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय भी नीचे के तीन चारित्र की अपेक्षा छह स्थान पतित होता है और ऊपर के एक चारित्र से उसी प्रकार अनन्तगुना हीन होता है। जिस प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत के सम्बन्ध में कहा है उसी प्रकार परिहारविशुद्धिक के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए।" "हे भगवन् ! सूक्ष्मसंपराय संयत सामायिक संयत के विजातीय पर्यवों की अपेक्षा क्या हीन है ?" "हे गौतम ! वह हीन नहीं, तुल्य नहीं, पर अधिक है और अनन्तगुना अधिक है। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धिक के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। अपने सजातीय पर्यवों की अपेक्षा कदाचित् हीन होता है, कदाचित् तुल्य होता है और कदाचित् अधिक होता है। हीन होने पर अनन्तगुना हीन होता है और अधिक होने पर अनन्तगुना अधिक होता है ?" "हे भगवन् ! सूक्ष्मसंपराय संयत यथाख्यात संयत के विजातीय चारित्रपर्यवों की अपेक्षा क्या हीन होता है ?" "हे गौतम ! वे हीन हैं, तुल्य नहीं, अधिक नहीं। वे अनन्तगुना हीन हैं । यथख्यात संयत नीचे के चारों की अपेक्षा हीन नहीं, तुल्य नहीं, पर अधिक है और वह अनन्तगुना अधिक है। अपने स्थान में हीन और अधिक नहीं, पर तुल्य है।" "हे भगवन् ! सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्धिक संयत, सूक्ष्मसंपराय संयत और यथाख्यात संयत इनके जघन्य और उत्कृष्ट चारित्रपर्यवों में कौन किससे विशेषाधिक है ?" "हे गौतम ! सामायिक संयत और छेदोपस्थापनीय संयत-इन दो के जघन्य चारित्र पर्यव परस्पर तुल्य और सबसे थोड़े हैं। उससे परिहारविशुद्धिक संयत के जघन्य चारित्र पर्यव अनन्तगुना हैं और उससे उसी के उत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुना हैं। उससे सामायिक संयत और छेदोपस्थापनीय संयत के उत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुना और परस्पर तुल्य हैं। उसमें सूक्ष्मसंपराय संयत के जघन्य चारित्रपर्यव अनन्तगुना हैं और उससे उसके ही उत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुना हैं। और उससे यथाख्यात संयत के अजघन्य और अनुत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुना हैं।" १. भगवती २५.७
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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