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संवर पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ६
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"आगम में कषाय-प्रत्याख्यान और योग-प्रत्याख्यान का उल्लेख भी स्पष्ट रूप से प्राप्त है। यदि कषाय और योग के प्रत्याख्यान से अकषाय और अयोग संवर नहीं होते तो कषाय-प्रत्याख्यान और योग-प्रत्याख्यान का उल्लेख ही क्यों आता? उत्तराध्ययन में निम्नोक्त दो प्रश्नोत्तर प्राप्त हैं : - (१) "हे भन्ते ! कषाय-प्रत्याख्यान से जीव को क्या होता है ? 'कषाय-प्रत्याख्यान
से जीव वीतराग भाव का उपार्जन करता है, जिससे जीव सुख-दुःख में
समभाववाला होता है। (२) 'हे भगवन् ! योग-प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ?' 'योग-प्रत्याख्यान
से जीव अयोगीत्व प्राप्त करता है। अयोगी जीव नए कर्मों का बन्ध नहीं करता
और पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा करता है।' "इन प्रश्नोत्तरों से भी स्पष्ट है कि अकषाय और अयोग संवर भी प्रत्याख्यान से होते हैं । अप्रमाद संवर के विषय में भी यही बात लागू पड़ती है।"
इस प्रश्न का समाधान करते हुए स्वामीजी कहते हैं-"आगम में उपर्युक्त प्रत्याख्यान के साथ ही शरीर-प्रत्याख्यान का भी उल्लेख है। पर जैसे शरीर का प्रत्याख्यान करने पर भी शरीर छूटता नहीं; वैसे ही प्रमाद, कषाय और शुभ योगों का प्रत्याख्यान करने पर भी उनसे छुटकारा नहीं होता। शरीर-प्रत्याख्यान का अर्थ है शरीर के ममत्व का त्याग। वैसे ही कषाय-प्रत्याख्यान और योग-प्रत्याख्यान का अर्थ है कषाय और योग के ममत्व का त्याग। जिस तरह शरीर-प्रत्याख्यान से शरीर-मुक्ति नहीं होती; वैसे ही कषाय-प्रत्याख्यान और योग-प्रत्याख्यान से कषाय-आस्रव और योगास्रव से मुक्ति नहीं होती। उनसे अकषाय संवर अथवा अयोग संवर नहीं होते। अप्रमाद, कषाय और अयोग संवर तो तत्सम्बन्धी कर्मों के क्षय और उपशम से ही होते हैं।"
१. उत्त० २६, ३६ :
कसायपच्चक्खाणेणं भन्ते जीवे किं जणयइ।। क० वीयरागभावं जणयइ। वीयराग
भावपाडिवन्ने वि य णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ।। २. उत्त० २६, ३७ :
जोगपच्चक्खाणेणं भन्ते जीवे किं जणयइ।। जो० अजोगत्तं जणयइ। अजोगी णं जीवे
नवं कम्मं न बन्धइ पुव्वबद्धं निज्जरेइ।। ३. उत्त० २६, ३८ :
सरीरपच्चक्खाणेणं भन्ते जीवे किं जणयइ।। स० सिद्धाइसयगुणकित्तणं निव्वत्तेइ ।
सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ ।। ४. टीकम डोसी की चर्चा ।