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नव पदार्थ
के सर्वथा निरोध से होता है। अशुभ प्रवृत्तियों का आंशिक प्रत्याख्यान पाँचवें गुणस्थान में और पूर्ण प्रत्याख्यान छठे गुणस्थान में हो जाता है, लेकिन शुभ प्रवृत्ति तो तेरहवें गुणस्थान तक चालू रहती है। उसका पूर्णरूपेण निरोध तो मुक्त होने की पार्श्ववर्ती दशा में-चौदहवें गुणस्थान में होता है। अतः प्राणातिपात आदि सावद्य प्रवृतियों के प्रत्याख्यान से विरति संवर होता है। योग पर उसका असर सिर्फ इतना ही होता है कि शुभ और अशुभ कार्य-क्षेत्रों में दौड़नेवाली योगरूप अस्थिरता-चञ्चलता अशुभ कार्य-क्षेत्र से दूर हो शुभ कार्य-क्षेत्र में सीमित हो आती है, पर उसकी प्रवृत्ति रुकती नहीं ! अतः सावद्य प्रवत्ति को त्यागने से अयोग संवर नहीं होता'।
श्री हेमचन्द्रसूरि लिखते हैं-“सवद्ययोगहानेन, विरतिं चापि साधयेत् ।” सावद्य योग के त्याग से विरति की सिद्धि करो। इससे भी स्वामीजी ने जो कहा है वह समर्थित होता है। विरति संवर की उत्पत्ति सावद्य योगों के त्याग से होती है।
६. अप्रमादादि संवर और शंका-समाधान (गा० १६-१७) :
स्वामीजी ने गाथा ७ से ६ में यह कहा है कि अप्रमाद, अकषाय और अयोग संवर त्याग-प्रत्याख्यान से नहीं होते। यहाँ प्रश्न उठाया जाता है
"आगम में कहा है-“प्रत्याख्यान से इच्छानिरोध होता है-प्राणी आस्रव को निरुद्ध करता है। इसी तरह कहा है-'प्रत्याख्यान का फल संयम है और संयम का फल आस्रव-निरोध' ।' प्रत्याख्यान से आस्रव का निरोध स्पष्ट कहा है अतः प्रमाद-प्रत्याख्यान कषाय-प्रत्याख्यान और योग-प्रत्यख्यान से भी वे संवर सिद्ध होते हैं।
१. जीव-अजीव पृ० १६४-१६५ २. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : श्री हेमचन्द्रसूरिकृत सप्ततत्त्वप्रकरणम् : गा० १६ ३. उत्त० २६. १३ :
पच्चखाणेणं भन्ते जीवे किं जणयइ ।। प० आसवदाराई निरुम्भइ। पच्चखाणेणं इच्छानिरोहं जणयइ। भगवती २.५: से णं भंते ! पच्चक्खाणे किं फले ? संजमफले। से णं भंते ! संजमे किं फले ? अणण्हयफले।