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________________ संवर पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ४ अनियंत्रित - खुली रखने का अर्थ है - पदार्थों की आशा- उनको भोगने की पिपास को बनाये रखना । पापपूर्ण कार्यों के करने की संभावना को जीवित रखना । इसीलिए अत्याग भाव - आशा - वाञ्छारूप अविरति को आस्रव कहा गया है। एक बार शिष्य ने पूछा - "जीव क्या करता हुआ और क्या कराता हुआ संयत, विरत और प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा होता है ?" आचार्य ने उत्तर दिया- "भगवान ने पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक - इन छहों प्रकार के प्राणियों को कर्म-बंध का हेतु कहा है। जो यह सोच कर कि जैसे मुझे हिंसाजनित दुःख और भय होते हैं वैसे ही सब प्राणियों को होते हैं, प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापों से विरत होता है, वह सावद्य - क्रिया- रहित, हिंसा-रहित, क्रोध - मान-माया - लोभ-रहित, उपशान्त और परिनिर्वृत्त होता है। ऐसा संयत, विरत और प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा आत्मा अक्रिय, संवृत्त और एकान्तपण्डित होता है ।" इस वार्तालाप से स्पष्ट है कि अविरति आस्रव का निरोध विरति--पाप-प्रत्याख्यान से होता है। विरंति संवर अठारह पापों के प्रत्याख्यान से निष्पन्न होता है । - श्री जयाचार्य ने कहा है- “पाँचवें गुणस्थान में सम्यक्त्व संवर होता है परन्तु सर्व व्रत न होने से, सर्व विरति की अपेक्षा से विरति संवर का अभाव कहा गया है । पाँचवें गुणस्थान में पाँचों चारित्र नहीं होते । देशचारित्र होता है जो उनसे भिन्न है । अतः विरति संवर नहीं कहा गया है। पाँचवें गुणस्थान में चारित्र आत्मा भी इसी कारण नहीं कही गई है । देशचारित्र की अपेक्षा से पाँचवें गुणस्थान में भी विरति संवर और चारित्र कहने में कोई दोष नहीं ।" (२) अप्रमाद, अकषाय और अयोग संवर : ठाणाङ्ग में अठारह पापों की विरति का उल्लेख है । यह विरति छठे गुणस्थान १. सुयगड २.४ २. झीणी चर्चा ढा० ६ : ५२६ ३. पंचमे सम्यक्त संवर पाय सर्व व्रती तणी अपेक्षाय । वरती संवर कहीजै नांहि रे ।।२५।। पंचमें पाँचू चारित्र नांहि, देश चारित्र जुदो कह्यो ताहि । तिण सूं बरती संवर न जणाय रे ।। २६ ।। पंचमें चारित्र आत्मा नांहि, चारित्र आत्मावाला ताहि । असंख्याता का अर्थ रै मांहि रे ।। २७ ।। तिणसुं पंचमा गुणठाणा मांही वरती संवर कह्यो नहीं ताहि । सर्व व्रत चारित्र नी अपेक्षाय रे ।। २८ ।। देश चारित्र नी अपेक्षाय, वरती संवर ने चारित्र सुहाय । ठाणाङ्ग, ४८ :
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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