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________________ ५३० नव पदार्थ में सम्पूर्ण हो जाती है। यह सर्व विरति गुणस्थान कहलाता है। इसके बाद सावध कार्यों की अविरति नहीं रहती। सावध कार्यों के सर्व त्याग-प्रत्याख्यान इस गुणस्थान में हो जाते हैं। सर्व सावध कर्मों के प्रत्याख्यान हो जाने पर भी आगे के गुणस्थानों में प्रमाद, कषाय और योग आस्रव देखे जाते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सर्व सावध कार्यों के प्रत्याख्यान से भी ये नहीं मिटते और उस समय तक अवशेष रहते हैं जब तक सम्बन्धित कर्मों का क्षय या क्षयोपशम नहीं होता। श्री जयाचार्य लिखते हैं__ "आठवें और नौंवें गुणस्थान में शुभ लेश्या और शुभ योग है। सावद्य योगों का सर्वथा परिहार है और फिर भी कषाय आस्रव है। सर्व सावद्य योगों के प्रत्याख्यान से भी कषाय आस्रव दूर नहीं हुआ। जब जीव ग्यारहवें गुणस्थान में क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशम करता है तब उदय का कर्तव्य दूर होता है और कषाय संवर होता है। छठे गुणस्थान में प्रमाद आस्रव होता है पर लेश्या और योग शुभ होते हैं। सावध योगों का प्रत्याख्यान होने पर भी प्रमाद आस्रव दूर नहीं हुआ। शुभ योगों की जब अधिक प्रबलता होती है तो सातवें गुणस्थान में अप्रमाद संवर होता है। छठे गुणस्थान तक निरन्तर प्रमाद आस्रव होता है और कषाय आस्रव निरन्तर दसवें गुणस्थान तक । सातवें गुणस्थान में अप्रमाद संवर होता है फिर प्रमाद का पाप नहीं बढ़ता । ग्यारहवें गुणस्थान में अकषाय संवर होता है और फिर कषाय के पाप नहीं लगते।" १. झीणी चर्चा ढा० २२ : नवमे अष्टम गुणठाण छै जी, शुभ लेश्या शुभ जोग। पिण क्रोधादिक स्यूं बिगड्या प्रदेश ने जी, कषाय आस्रव प्रयोग।।१४ ।। क्रोध मान माया लोभ सर्वथा जी, उपशमाया इग्यारमें गुणठाण । उदय नों किरतब मिट गयो जी, जब अकषाय संवर जाण।२७।। असंख्याता जीव रा प्रदेश में, अणउछापणो अधिकाय। ते दीसै तीनूं जोगां स्यूं जुदोजी, प्रमाद आस्रव ताय ।।३०।। ते कर्म उदय बहु मिट गया जी, जबर आवै शुभ जोग। तिण बेल्यां गुणठाणो सातमो जी, अंतर मुहूर्त प्रयोग।।३१।। छठे प्रमाद आस्रव थकां जी, लेश्या जोग शुभ आय। अधिक शुभ जोग आया थकां जी, अप्रमादी सातमें थाय।।३२।। छठे प्रमाद आस्रव निरन्तरे, दशमा लग निरन्तर कषाय। निरन्तर पाप लागे तेहने, तीनूं जोगा स्यूं जुदो कहाय।।४५।। जद आवै गुणठाणै सातमें, प्रमाद रो नहीं बधै पाप। अकषाई हुवां स्यूं कषाय रा, नहीं लागे पाप संताप ।।४६ ।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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