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________________ ५२८ नव पदार्थ नहीं होगा ? इसे इस प्रकार समझा जा सकता है-सिद्धों में सम्यक्त्व होने पर भी सम्यक्त्व संवर क्यों नही है ? जैसे त्याग न होने से उनमें सम्यक्त्व संवर नहीं; वैसे ही दूसरे और चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व होने पर भी त्याग के अभाव में सम्यक्त्व संवर नहीं होता।' (ख) सर्व विरति संवर : भगवान महावीर ने कहा है -"जो प्राणी असंयत, अविरत और अप्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा होता है, वह सक्रिय, असंवृत्त, एकान्तदण्ड देनेवाला, एकान्तबाल, एकान्तसुप्त होता है। ऐसा मनुष्य मन, वचन और काय से पाप करने का विचार भी न करे, वह पापपूर्ण स्वप्न भी न देखे तो वह पाप-कर्म करता है। “जो आत्मा पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के प्राणियों के प्रति असंयत, अविरत और अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा होता है, वह सदा निष्ठुर और प्राणीघात में चित्त वाला होता है। इसी प्रकार प्राणातिपात यावत् परिग्रह, क्रोध यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में चित्तवाला होता है। वह पाप न भी करे, पापपूर्ण स्वप्न भी न देखे तो भी पाप-कर्म करनेवाला है क्योंकि ऐसा मनुष्य दिन में, रात में, सोते जागते, सदा अमित्र होता है, मिथ्यासंस्थित होता है, नित्य शठ व्यवहारवाला और घात में चित्तवाला होता है। वह सर्व प्राणी; सर्व सत्त्व का. रात और दिन, सोते और जागते सदा बैरी बना रहता है। वह अठारह पापों में विद्यमान रहता है। इसलिए मन, वचन और काय से पाप करने का न सोचे, पाप न करे यहाँ तक कि पापपूर्ण स्वप्न भी न देखे तो भी वह पाप करता है।" ___ अविरति भाव-शस्त्र है। जैसे बारूद, आग का संयोग मिलते ही, भड़क उठता है वैसे ही स्वच्छन्द इच्छाएँ संयोग मिलते ही पाप में प्रवृत्त हो जाती हैं। इच्छाओं को १. झीणी चर्चा ढा० ६. पहिलै गुणठाणे आश्रव बीस, दूजै भेद कह्या उगणीस। टलियो मिथ्यात्व तमीस रे ।।१।। तीजै बीस चौथे उगणीस, यां पिण टलियो मिथ्यात्व तमीस। च्यार सम्यक्त सखर जगीस रे।।२।। हिवै संवर नां भेद बीस, पहिला च्यार गुणठाण न दीस। आवता कर्म नहीं रुकीस रे।।२३।। वीजै चौथे सम्यक्त पाय, पिण मिथ्यात त्यागा बिन ताहि। संवर कहीजै नांहि रे।।२४।। कोई कहे चोथो गुणस्थान, सम्यक्त तो अधिक प्रधान। तो सम्यक्त संवर क्यूं नहीं जाण रे।।३६।। सिद्धा मांहि पिण सम्यक्त भावै, विण त्याग संवर नहीं थावै । तिम चौथे गुणठाणे न पावै रे।।३७।। २. सुयगडं २.४
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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