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________________ संवर पदार्थ (ढाल : ५) : टिप्पणी ४ स्वामीजी का इससे मतभेद रहा। उन्होंने लिखा है- “संवर निरोध लक्षणात्मक है, वह प्रवर्तक नहीं हो सकता । कषायरहित प्रवृत्ति, प्रमादरहित प्रवृत्ति, शुभ योग, मन-वचन-काय शुभ प्रवृत्ति, या प्रवृत्ति, सत्य में प्रवृत्ति, दत्तग्रहण में प्रवृत्ति, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में में प्रवृत्ति, पाँचों इन्द्रियों की भली प्रवृत्ति आदि-आदि प्रवृत्तियाँ निर्जरा की करनी है। उनसे निर्जरा होती है, उनमें संवर का अंश भी नहीं । सवर तो उसी पदार्थ को कहा जाता है जो आते हुए नए कर्मों को रोकता है। आस्रव उस पदार्थ को कहते हैं जो नए कर्मों को ग्रहण करता है। निर्जरा उस पदार्थ को कहते हैं जो बंधे हुए कर्मों को तोड़ता है। इनके भिन्न-भिन्न लक्षणों से वस्तु का निर्णय करना चाहिए । सवंर में शुभ प्रवृत्तियों का समावेश नहीं होता ।" ४. सम्यक्त्व आदि पाँच संवर और प्रत्याख्यान का सम्बन्ध ( गा० ३-९) : इन गाथाओं में स्वामीजी ने संवर कैसे उत्पन्न होते हैं, इस पर प्रकाश डालते हुए दो बाते कही हैं : ५२७ (१) सम्यक्त्व संवर और सर्व विरति संवर प्रत्याख्यान से निष्पन्न होते हैं I (२) अप्रमाद, अकषाय और अयोग संवर कर्म-क्षय से निष्पन्न होते हैं । नीचे इनका क्रमशः स्पष्टीकरण किया जा रहा है : : १ (क) सम्यक्त्व संवर निर्ग्रन्थ प्रवचन में हड्डी और मज्जा की तरह प्रेमानुराग होना श्रद्धा है। जिनप्ररूपित तत्त्वों में शंकारहित, कांक्षारहित, विचिकित्सारहित श्रद्धा, रुचि प्रतीति को सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्त्व कहते हैं । निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, केवलज्ञानी द्वारा कहा हुआ है, प्रतिपूर्ण है, मोक्ष की ओर ले जानेवाला है, संशुद्ध है, शल्य का नाश करनेवाला है, सिद्धि-मार्ग है, मुक्ति-मार्ग है, निरूपम यानरूप है और निर्वाण का मार्ग है। यही सत्य है, यही परमार्थ है शेष सब अनर्थ है-ऐसी दृढ़ प्रतीति सम्यक्त्व है । ऐसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाने पर भी सम्यक्त्व संवर नहीं होता । सम्यक्तव संवर तब होता है जब मिथ्यात्व का त्याग किया जाता है। विपरीत श्रद्धान का त्याग ही सम्यक्त्व संवर है। इस तरह सम्यक्त्व संवर की निष्पत्ति त्याग - प्रत्याख्यान से होती है। I १. 1 श्री जयाचार्य कहते हैं—“पहले गुणस्थान में बीस आस्रव होते हैं। दूसरे गुण स्थान में मिथ्यात्व आस्रव नहीं होता, अवशेष उन्नीस होते हैं। तीसरे गुणस्थान में पुनः बीस और चौथे में पुनः उन्नीस आस्रव होते हैं। चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व पुनः दूर होता है । और सम्यक्त्व आता है। इधर संवर के बीस भेद पहले चार गुणस्थानों में नहीं होते। दूसरे और चौथे गुणस्थान में सम्यक्तव होने पर भी सम्यक्त्व संवर नहीं होता। इसका कारण यही है कि चौथे गुणस्थान में प्रत्याख्यान नहीं होता और प्रत्याख्यान बिना संवर नहीं होता । यहाँ तर्क किया जाता है कि चौथा गुणस्थान सम्यक्त्व प्रधान है फिर सम्यक्त्व संवर कैसे टीकम डोसी की चर्चा ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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