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________________ नव पदार्थ जीव चैतन्य-गुण से संयुक्त है इसलिये द्रव्य है। चेतना जीव पदार्थ में ही होती है अतः वह उसका धर्म और गुण है। जीव का लक्षण उपयोग है, यह बताया जा चुका है (टि० ४ पा० टि० २)। उपयोग का अर्थ है जानने तथा देखने की शक्ति । जीव में देखने और जानने की अनन्त शक्ति यह अकृत्रिम पदार्थ है। जीव के विश्लेषण से उनमें से कोई दूसरा पदार्थ नहीं निकलता। यह अखण्ड द्रव्य है। इसके टुकड़े नहीं किये जा सकते। जड़ पदार्थ पुद्गल के टुकड़े करने संभव है और टुकड़े करते करते एक सूक्ष्मतम टुकड़ा मिलता है, उसको परमाणु कहते हैं । यह अकेला, स्वतंत्र और अन्तिम-अविभाज्य भाग होता है। परमाणु जितने स्थान को रोकता है उतने को एक प्रदेश कहते हैं। जीव इस माप से असंख्यात प्रदेशी होता है। असंख्यात प्रदेशों का अखण्ड समूह होने से जीव को अस्तिकाय कहा जाता है। अखण्ड पदार्थ होने से जीव का एक भी प्रदेश उससे अलग नहीं किया जा सकता-अर्थात् वह सदा असंख्यात प्रदेशी रहता है। प्रथम ढाल-गाथा में यही बात संक्षेप में कही गई है। जीव अनन्त हैं परन्तु सर्व जीव वस्तुतः सद्दश हैं और इसलिए सभी एक 'जीव द्रव्य' को कोटि में समा जाते हैं। जितने जीव हैं उतनी ही आत्माएँ हैं। प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है और स्वानुभव करता है परन्तु द्रव्य की दृष्टि से सब एक हैं क्योंकि सबमें चैतन्य गुण समान है। . अतः द्रव्यतः जीव एक है। संख्या की दृष्टि से जीव अनन्त है। उनकी अनन्त संख्या में न कभी वृद्धि होती है, न कभी हास। जीव का चेतन गुण उसका खास और अन्य द्रव्य से पृथक गुण हैं । द्रव्यों के गुण परिवर्तनशील होते हैं। जीव का चेतन गुण कभी अजीव द्रव्य में न होगा और न अजीव द्रव्य का अचेतन या जड़ गुण जीव पदार्थ में होगा। गुणों में परस्पर अपरिवर्तनशील होने से ही द्रव्यों की संख्या ६ हुई है। द्रव्य अपने गुणों से अलग नहीं हो सकता और न गुण ही द्रव्य बिना रह सकते हैं। इस तरह जीव द्रव्य शाश्वत है-चिरंतन हैं। द्रव्य जीव पर विशद-विवेचन बाद में प्रथम ढाल गा० ३७-४२ में है। सोने के आधार से जैसे कंठा, कड़ा आदि नाना प्रकार के अलंकार बनते हैं वैसे ही द्रव्य जीव के आधार से उसकी नाना अवस्थायें होती हैं। इन्हें भाव (Modifications) कहते हैं। जीव के जितने भाव हैं वे सब जीव कहलाते हैं। द्रव्य जीव एक होता है और भाव जीव अनेक।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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